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________________ ४१६ जैन धर्म और दर्शन तरह मर्यादित उपकरण आदि का रखना हिंसा का बाधक नहीं । जैन साधुसंघ की इस प्रकार की पारस्परिक आचारभेदमूलक चर्चा के द्वारा भी अहिंसा के ऊहापोह में बहुत कुछ विकास देखा जाता है, जो श्रोघनियुक्ति आदि में स्पष्ट है | कभी-कभी अहिंसा की चर्चा शुष्क तर्क की-सी हुई जान पड़ती है । एक व्यक्ति प्रश्न करता है कि अगर वस्त्र रखना ही है तो वह बिना फाड़े अखण्ड ही क्यों न रखा जाए; क्योंकि उसके फाड़ने में जो सूक्ष्म अणु उड़ेंगे वे जीवघातक जरूर होंगे । इस प्रश्न का जवाब भी उसी ढंग से दिया गया है | जबाब देनेवाला कहता है, कि अगर वस्त्र फाड़ने से फैलनेवाले सूक्ष्म अणुत्रों के द्वारा जीवघात होता है; तो तुम जो हमें वस्त्र फाड़ने से रोकने के लिए कुछ कहते हो उसमें भी तो जीवघात होता है न ? — इत्यादि । अस्तु । जो कुछ हो, पर हम जिनभद्रगणि की स्पष्ट वाणी में जैनपरंपरासंमत अहिंसा का पूर्ण स्वरूप पाते हैं । वे कहते हैं कि स्थान सजीव हो या निर्जीव, उसमें कोई जीव घातक हो जाता हो या कोई घातक ही देखा जाता हो, पर इतने मात्र से हिंसा या अहिंसा का निर्णय नहीं हो सकता । हिंसा सचमुच प्रमाद - प्रयतना - संयम में ही है फिर चाहे किसी जीव का घात न भी होता हो । इसी तरह अगर अप्रमाद या यतना-संयम सुरक्षित हैं तो जीवघात दिखाई देने पर भी वस्तुतः अहिंसा ही है । उपर्युक्त विवेचन से हिंसा संबंधी जैन ऊहापोह की नीचे लिखी क्रमिक भूमिकाएँ फलित होती हैं । (१) प्राण का नाश हिंसारूप होने से उसको रोकना ही हिंसा है । (२) जीवन धारण की समस्या में से फलित हुआ कि जीवन- खासकर संयमी जीवन के लिए अनिवार्य समझी जानेवाली प्रवृत्तियाँ करते रहने पर गर जीवघात हो भी जाए तो भी यदि प्रमाद नहीं है तो वह जीवघात हिंसारूप न होकर हिंसा ही है । (३) अगर पूर्णरूपेण हिंसक रहना हो तो वस्तुतः और सर्वप्रथम चित्तगत क्लेश ( प्रमाद ) का ही त्याग करना चाहिए । यह हुआ तो हिंसा सिद्ध हुई । हिंसा का बाह्य प्रवृत्तियों के साथ कोई नियत संबंध नहीं है । उसका नियत संबंध मानसिक प्रवृत्तियों के साथ है । (४) वैयक्तिक या सामूहिक जीवन में ऐसे भी अपवाद स्थान आते हैं जब कि हिंसा मात्र हिंसा ही नहीं रहती प्रत्युत वह गुणवर्धक भी बन जाती है । ऐसे अपवादिक स्थानों में अगर कही जानेवाली हिंसा से डरकर उसे आचरण में न लाया जाए तो उलटा दोष लगता है । ऊपर हिंसा हिंसा संबंधी जो विचार संक्षेप में बतलाया है उसकी पूरी-पूरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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