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________________ हिंसा की मीमांसा ४१५ 'ममिनिकाय' जैसे पिटक ग्रंथों में भी जैन संमत अहिंसा का सपरिहास खण्डन पाया जाता है । उत्तरवर्ती नियुक्ति आदि जैन ग्रंथों में तथा 'अभिधर्मकोष' आदि बौद्ध ग्रंथों में भी वही पुराना खण्डन-मण्डन नए रूप में देखा जाता है । जब जैन-बौद्ध दोनों परंपराएँ वैदिक हिंसा की एक-सी विरोधिनी हैं और जब दोनों की अहिंसा संबंधी व्याख्या में कोई तात्त्विक मतभेद नहीं तब पहले से ही दोनों में पारस्परिक खण्डन- मण्डन क्यों शुरू हुआ और चल पड़ायह एक प्रश्न है । इसका जवाब जब हम दोनों परंपराओं के साहित्य को ध्यान से पढ़ते हैं, तत्र मिल जाता है । खण्डन- मण्डन के अनेक कारणों में से प्रधान कारण तो यही है कि जैन परंपरा ने नवकोटिक हिंसा की सूक्ष्म व्याख्या को अमल में लाने के लिए जो बाह्य प्रवृत्ति को विशेष नियंत्रित किया वह बौद्ध परंपरा ने नहीं किया । जीवन संबंधी बाह्य प्रवृत्तियों के प्रति नियत्रण और मध्यममार्गीय शैथिल्य के प्रबल भेद में से ही बौद्ध और जैन परंपराएँ आपस में खण्डन-मण्डन में प्रवृत्त हुईं। इस खण्डन- मण्डन का भी जैन वाङ्मय के अहिंसा संबंधी ऊहापोह में खासा हिस्सा है जिसका कुछ नमूना ज्ञानबिन्दु के टिप्पणों में दिए हुए जैन और बौद्ध अवतरणों से जाना जा सकता है । जब हम दोनों परंपराओं के खण्डन- मण्डन को तटस्थ भाव से देखते हैं तब निःसंकोच कहना पड़ता है कि बहुधा दोनों ने एक दूसरे को गलत रूप से ही समझा है । इसका एक उदाहरण 'मज्झिमनिकाय' का उपालिसुत्त और दूसरा नमूना सूत्रकृताङ्ग ( १.१.२.२४-३२; २६. २६-२८ ) का है । जैसे-जैसे जैन साधुसंघ का विस्तार होता गया और जुदे-जुदे देश तथा काल में नई-नई परिस्थिति के कारण नए-नए प्रश्न उत्पन्न होते गए वैसे-वैसे जैन तत्त्वचिन्तकों ने हिंसा की व्याख्या और विश्लेषण में से एक स्पष्ट नया विचार प्रकट किया । वह यह कि अगर अप्रमत्त भाव से कोई जीवविराधना — हिंसा हो जाए या करनी पड़े तो वह मात्र अहिंसाकोटि की अतएव निर्दोष ही नहीं है बल्कि वह गुण (निर्जरा ) वर्धक भी है । इस विचार के अनुसार, साधु पूर्ण हिंसा का स्वीकार कर लेने के बाद भी, अगर संयत जीवन की पुष्टि के निमित्त, विविध प्रकार की हिंसारूप समझी जानेवाली प्रवृत्तियाँ करता है तो वह संयमविकास में एक कदम आगे बढ़ता है । यही जैन परिभाषा के अनुसार निश्चय अहिंसा है । जो त्यागी बिलकुल वस्त्र आदि रखने के विरोधी थे वे मर्यादित रूप में वस्त्र आदि उपकरण ( साधन ) रखनेवाले साधुत्रों को जब हिंसा के नाम पर कोसने लगे तब वस्त्रादि के समर्थक त्यागियों ने उसी निश्चय सिद्धान्त का आश्रय लेकर जवाब दिया कि केवल संयम के धारण और निर्वाह के वास्ते ही, शरीर की Jain Education International For Private & Personal Use Only --- www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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