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________________ ... जैन धर्म और दर्शन बुद्धियों का तथा उनके मनोरंजक दृष्टान्तों का वर्णन' पहले से पाया जाता है, उनको अपने ग्रन्थ में कहीं न कहीं संगृहीत करने के लोभ का उमास्वाति शायद ही संवरण करते । एक तरफ से, वाचकश्री ने कहीं भी अक्षर-अनक्षर आदि नियुक्तिनिर्दिष्ट श्रुतभेदों का संग्रह नहीं किया है; और दूसरी तरफ से, कहीं भी नन्दीवर्णित श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित मतिभेद का संग्रह नहीं किया है। जब कि उत्तरवर्ती विशेषावश्यकभाष्य में दोनों प्रकार का संग्रह तथा वर्णन देखा जाता है । यह वस्तुस्थिति सूचित करती है कि शायद वाचक उमास्वाति का समय, नियुक्ति के उस भाग की रचना के समय से तथा नन्दी की रचना के समय से कुछ न कुछ पूर्ववर्ती हो । अस्तु, जो कुछ हो पर उपाध्यायजी ने तो ज्ञानबिन्दु में श्रुत से मति का पार्थक्य बतलाते समय नन्दी में वर्णित तथा विशेषावश्यकभाष्य में व्याख्यात श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित दोनों भेदों की तात्त्विक समीक्षा कर दी है। (३) चतुर्विध वाक्यार्थ ज्ञान का इतिहास [२०-२६ ] उपाध्यायजी ने एक दीर्घ श्रुतोपयोग कैसे मानना यह दिखाने के लिए चार प्रकार के वाक्यार्थ ज्ञान की मनोरंजक और बोधप्रद चर्चा की है और उसे विशेष रूप से जानने के लिए प्राचार्य हरिभद्र कृत 'उपदेशपद' आदि का हवाला भी दिया है। यहाँ प्रश्न यह है कि ये चार प्रकार के वाक्यार्थ क्या हैं और उनका विचार कितना पुराना है और वह किस प्रकार से जैन वाङ्मय में प्रचलित रहा है तथा विकास प्राप्त करता आया है। इसका जवाब हमें प्राचीन और प्राचीनतर वाङ्मय देखने से मिल जाता है। __जैन परंपरा में 'अनुगम' शब्द प्रसिद्ध है जिसका अर्थ है व्याख्यानविधि । अनुगम के छह प्रकार आर्यरक्षित सूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र ( सूत्र० १५५ ) में बतलाए हैं। जिनमें से दो अनुगम सूत्रस्पर्शी और चार अर्थस्पर्शी हैं। अनुगम शब्द का नियुक्ति शब्द के साथ सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगम रूप से उल्लेख अनुयोगद्वार सूत्र से प्राचीन है इसलिए इस बात में तो कोई संदेह रहता ही नहीं कि यह अनुगमपद्धति या व्याख्यान शैली जैन वाङ्मय में अनुयोगद्वार सूत्र से पुरानी और नियुक्ति के प्राचीनतम स्तर का ही भाग है जो संभवतः श्रुतकेवली भद्र१ दृष्टान्तों के लिए देखो नन्दी सूत्र की मलयगिरि की टीका, पृ० १४४ से । २ देखो, विशेषा० गा० १६६ से, तथा गा० ४५४ से। ३ देखो, ज्ञानबिन्दु टिप्पण पृ० ७३ से । . . .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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