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________________ श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित मति ४०५ होता है, जब कि अश्रुतनिश्रित मति ज्ञान का विषय पहले अनुपलब्ध होता है। प्रभ यह है कि 'शानबिन्दु' में उपध्यायजी ने मतिज्ञान रूप से जिन श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित दो भेदों का उपर्युक्त स्पष्टोकरण किया है उनका ऐतिहासिक स्थान क्या है ? इसका खुलासा यह जान पड़ता है कि उक्त दोनों भेद उतने प्राचीन नहीं जितने प्राचीन मति ज्ञान के अवग्रह आदि अन्य भेद हैं। क्योंकि मति ज्ञान के अवग्रह आदि तथा बहु, बहुविध आदि सभी प्रकार श्वेताम्बर-दिगम्बर वाङ्मय मे समान रूप से वर्णित हैं, तब श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित का वर्णन एक मात्र श्वेताम्बरीय ग्रंथों में है। श्वेताम्बर साहित्य में भी इन भेदों का वर्णन सर्वप्रथम 'नन्दीसूत्र में ही देखा जाता है। 'अनुयोगद्वार' में तथा 'नियुक्ति' तक में श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित के उल्लेख का न होना यह सूचित करता है कि यह भेद संभवतः 'नन्दी' की रचना के समय से विशेष प्राचीन नहीं । हो सकता है कि वह सूझ खुद नन्दीकार की ही हो । यहाँ पर वाचक उमास्वाति के समय के विषय में विचार करनेवालों के लिए ध्यान में लेने योग्य एक वस्तु है। वह यह कि वाचक श्री ने जब मतिज्ञान के अन्य सब प्रकार वर्णित किये हैं तब उन्होंने श्रुतनिश्रित और अश्रतनिश्रित का अपने भाष्य तक में उल्लेख नहीं किया। स्वयं वाचक श्री, जैसा कि आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं, यथार्थ में उत्कृष्ट संग्राहक ४ हैं। अगर उनके सामने मौजूदा 'नन्दीसूत्र' होता तो वे श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित का कहीं न कहीं संग्रह करने से शायद ही चूकते । अश्रुतनिश्रित के श्रौत्पत्ति की वैनयिकी आदि जिन चार १ यद्यपि अश्रुतनिश्रितरूप से मानी जानेवाली औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों का नामनिर्देश भगवती (१२. ५) में और आवश्यक नियुक्ति (गा०६३८) में है, जो कि अवश्य नंदी के पूर्ववर्ती हैं। फिर भी वहाँ उन्हें अश्रुतनिश्रित शब्द से निर्दिष्ट नहीं किया है और न भगवती आदि में अन्यत्र कहीं श्रुतनिश्रित शब्द से अवग्रह आदि मतिज्ञान का वर्णन है । अतएव यह कल्पना होती है कि अवग्रहादि रूप से प्रसिद्ध मति ज्ञान तथा प्रौत्पत्तिकी आदि रूप से प्रसिद्ध बुद्धियों की क्रमशः श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित रूप से मतिज्ञान की विभागव्यवस्था नन्दि-कार ने ही शायद की हो । २ देखो, नन्दीसूत्र, सू० २६, तथा ज्ञानबिन्दु टिप्पण पृ० ७० । ३ देखो, तत्त्वार्थ १.१३-१६ । ४ देखो, सिद्धहेम २.२.३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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