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जैन धर्म और दर्शन
के समय ही
पर्यायों में ही
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भिन्न हैं । केवलज्ञानावरण के द्वारा पूर्ण प्रकाश के प्रावृत होने उसके द्वारा अपूर्ण प्रकाश अनावृत भी है । इस तरह दो भिन्न श्रावृतत्व और अनावृतत्व है जो कि पर्यायार्थिक दृष्टि से सुघट है । फिर भी जब द्रव्यार्थिक दृष्टि की विवक्षा हो, तब द्रव्य की प्रधानता होने के कारण, पूर्ण और अपूर्णज्ञान रूप पर्याय, द्रव्यात्मक चेतना से भिन्न नहीं । अतएव उस दृष्टि से उक्त दो पर्यायगत श्रावृतत्व - अनावृतत्व को एक चेतनायत मानने और कहने में कोई विरोध नहीं । उपाध्यायजी ने द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दृष्टि का विवेक सूचित करके आत्मतत्त्व का जैन दर्शन सम्मत परिणामित्व स्वरूप प्रकट किया है जो कि केवल नित्यत्व या कूटस्थत्ववाद से भिन्न है ।
५. [५] उपाध्यायजी ने जैन दृष्टि के अनुसार 'श्रावृतानावृत' का समर्थन ही नहीं किया बल्कि इस विषय में वेदान्त मत को एकान्तवादी मान कर उसका खण्डन भी किया है । जैसे वेदान्त ब्रह्म को एकान्त कूटस्थ मानता है वैसे ही सांख्य-योग भी पुरुष को एकान्त कूटस्थ अतएव निर्लेप, निर्विकार और निरंश मानता है । इसी तरह न्याय आदि दर्शन भी आत्मा को एकान्त नित्य ही मानते हैं । तब ग्रन्थकार ने एकान्तवाद में 'श्रावृतानावृतत्व' की अनुपपत्ति सिर्फ वेदान्त मत की समालोचना द्वारा ही क्यों दिखाई ? अर्थात् उन्होंने सांख्ययोग आदि मतों की भी समालोचना क्यों नहीं की ? यह प्रश्न अवश्य होता है । इसका जवाब यह जान पड़ता है कि केवल ज्ञानावरण के द्वारा चेतना की 'आवृतानावृतत्व' विषयक प्रस्तुत चर्चा का जितना साम्य ( शब्दतः और अर्थतः ) वेदान्त दर्शन के साथ पाया जाता है उतना सांख्य आदि दर्शनों के साथ नहीं । जैन दर्शन शुद्ध चेतनतत्त्व को मान कर उस में केवलज्ञानावरण की स्थिति मानता है और उस चेतन को उस केवलज्ञानावरण का विषय भी मानता है । जैनमतानुसार केवलज्ञानावरण चेतनतत्त्व में ही रह कर अन्य पदार्थों की तरह स्वाश्रय चेतन को भी प्रवृत करता है जिससे कि स्व-परप्रकाशक चेतना न तो अपना पूर्ण प्रकाश कर पाती है और न अन्य पदार्थों का ही पूर्ण प्रकाश कर सकती है । वेदान्त मत की प्रक्रिया भी वैसी ही है । वह भी अज्ञान को शुद्ध चिद्रूप ब्रह्म में ही स्थित मान कर, उसे उसका विषय बतलाकर कहती है कि ज्ञान ब्रह्मनिष्ठ होकर ही उसे श्रावृत करता है जिससे कि उसका 'अखण्डत्व' आदि रूप से तो प्रकाश नहीं हो पाता, तब भी चिद्रूप से प्रकाश होता ही है । जैन प्रक्रिया के शुद्ध चेतन और केवलज्ञानावरण तथा वेदान्त प्रक्रिया के चिद्रूप ब्रह्म और ज्ञान पदार्थ में, जितना अधिक साम्य है उतना शाब्दिक और आर्थिक साम्य, जैन प्रक्रिया का अन्य सांख्य आदि प्रक्रिया के साथ नहीं
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