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________________ मति आदि का तारतम्य ३६५. है। क्योंकि सांख्य या अन्य किसी दर्शन की प्रक्रिया में अज्ञान के द्वारा चेतन या आस्मा के श्रावृतानावृत होने का वैसा स्पष्ट और विस्तृत विचार नहीं है, जैसा वेदान्त प्रक्रिया में है। इसी कारण से उपाध्यायजी ने जैन प्रक्रिया का समर्थन करने के बाद उसके साथ बहुत अंशों में मिलती-जुलती वेदान्त प्रक्रिया का खण्डन किया है पर दर्शनान्तरीय प्रक्रिया के खण्डन का प्रयत्नं नहीं किया । उपाध्यायजी ने वेदान्त मत का निरास करते समय उसके दो पक्षों का पूर्वपक्ष रूपसे उल्लेख किया है। उन्होंने पहला पक्ष विवरणाचार्य का [५] और दूसरा वाचस्पति मिश्र का [६] सूचित किया है । वस्तुतः वेदान्त दर्शन में वे दोनों पक्ष बहुत पहले से प्रचलित हैं। ब्रह्म को ही अज्ञान का आश्रय और विषय मानने वाला प्रथम पक्ष, सुरेश्वराचार्य की 'नैष्कर्म्यसिद्धि' और उनके शिष्य सर्वज्ञात्ममुनि के 'संक्षेपशारीरकवात्तिक' में, सविस्तर वर्णित है । जीव को अज्ञान का आश्रय और ब्रह्म को उसका विषय मानने वाला दूसरा पक्ष मण्डन मिश्र का कहा गया है। ऐसा होते हुए भी उपाध्यायजी ने पहले पक्ष को विवरणाचार्य-प्रकाशात्म यति का और दूसरे को वाचस्पति मिश्र का सूचित किया है। इसका कारण खद वेदान्त दर्शन की वैसी प्रसिद्धि है। विवरणाचार्य ने सुरेश्वर के मत का समर्थन किया और वाचस्पति मिश्र ने मण्डन मिश्र के मत का । इसी से वे दोनों पक्ष क्रमशः विवरणाचार्य और वाचस्पति मिश्र के प्रस्थानरूप से प्रसिद्ध हुए। उपाध्यायजी ने इसी प्रसिद्धि के अनुसार उल्लेख किया है। समालोचना के प्रस्तुत मुद्दे के बारे में उपाध्यायजी का कहना इतना ही है कि अगर वेदांत दर्शन ब्रह्म को सर्वथा निरंश और कूटस्थ स्वप्रकाश मानता है, तब वह उस में अज्ञान के द्वारा किसी भी तरह से 'श्रावृतानावृतत्व' घटा नहीं सकता; जैसा कि जैन दर्शन घटा सकता है। . ६. [७] जैन दृष्टि के अनुसार एक ही चेतना में 'श्रावृतानावृतख' की उपपत्ति करने के बाद भी उपाध्यायजी के सामने एक विचारणीय प्रश्न आया । वह यह कि केवलज्ञानावरण चेतना के पूर्णप्रकाश को आवृत करने के साथ ही जब अपूर्ण प्रकाश को पैदा करता है, तब वह अपूर्ण प्रकाश, एकमात्र केवलज्ञानावरणरूप कारण से जन्य होने के कारण एक ही प्रकार का हो सकता है । क्योंकि कारणवैविध्य के सिवाय कार्य का वैविध्य सम्भव नहीं। परन्तु जैन शास्त्र और अनुभव तो कहता है कि अपूर्ण ज्ञान अवश्य तारतम्ययुक्त ही है। पूर्णता में एकरूपता का होना संगत है पर अपूर्णता में तो एकरूपता असंगत है । ऐसी .... १ देखो, ज्ञानबिन्दु के टिप्पण पृ० ५५ पं० २५ से। . .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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