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________________ प्रतीत्यसमुत्पादकाद ३५७ से युक्त नहीं। वे स्वयं भी कूटस्थ होने से अपरिणामी हैं और निर्धर्मक होने से किसी उत्पाद-विनाशशाली गुणधर्म को भी धारण नहीं करते । उसका कहना यह है कि उत्पाद-विनाश वाले गुणधर्म जब सूक्ष्म भत में देखे जाते हैं तब सूक्ष्म चेतन कुछ विलक्षण ही होना चाहिए । अगर सूक्ष्म चेतन चेतन होकर भी वैसे गुण-धर्म युक्त हों तब जड़ सूक्ष्म से उनका वैलक्षण्य क्या रहा ? अतएव वह कहता है कि अगर सूक्ष्म चेतन का अस्तित्व मानना ही है तब तो सूक्ष्म भूत की अपेक्षा विलक्षणता लाने के लिए उन्हें न केवल निर्मक ही मानना उचित है बल्कि अपरिणामी भी मानना जरूरी है। इस तरह प्रधान परिणामवाद में चेतन तत्त्व आए पर वे निर्धर्मक और अपरिणामी ही माने गए। (ब) ब्रह्मपरिणामवाद जो प्रधानपरिणामवाद का ही विकसित रूप जान पड़ता है उसने यह तो मान लिया कि स्थल विश्व के मूल में कोई सूक्ष्म तत्त्व है जो स्थल विश्व का कारण है। पर उसने कहा कि ऐसा सूक्ष्म कारण जड़ प्रधान तत्त्व मानकर उससे भिन्न सूक्ष्म चेतन तत्त्व भी मानना और वह भी ऐसा कि जो अजागलस्तन की तरह सर्वथा अकिञ्चित्कर सो युक्ति संगत नहीं। उसने ' प्रधानवाद में चेतन तत्त्व के अस्तित्व की अनुपयोगिता को ही नहीं देखा बल्कि चेतन तत्त्व में अनंत संख्या की कल्पना को भी अनावश्यक समझा। इसी समझ से उसने सूक्ष्म जगत् की कल्पना ऐसी की जिससे स्थल जगत की रचना भी घट सके और अकिञ्चित्कर ऐसे अनंत चेतन तत्त्वों की निष्प्रयोजन कल्पना कादोष भी न रहे । इसी से इस वाद ने स्थूल विश्व के अंतस्तल में जड़ चेतन ऐसे परस्पर विरोधी दो तत्त्व न मानकर केवल एक ब्रह्म नामक चेतन तत्त्व ही स्वीकार किया और उसका प्रधान परिणाम की तरह परिणाम मान लिया जिससे उसी एक चेतन ब्रह्म तत्त्व में से दूसरे जड़ चेतनमय स्थल विश्व का आविर्भाव-तिरोभाव घट सके । प्रधान परिणामवाद और ब्रह्म परिणामवाद में फर्क इतना ही है कि पहले में जड़ परिणामी ही है और चेतन अपरिणामी ही है जब दूसरे में अंतिम सूक्ष्म तत्त्व एक मात्र चेतन ही है जो स्वयं ही परिणामी है और उसी चेतन में से आगे के जड़ चेतन ऐसे दो परिणाम प्रवाह चले । ३-प्रतीत्यसमुत्पादवाद यह भी स्थूल भूत के नीचे जड़ और चेतन ऐसे दो सूक्ष्म तत्त्वं मानता है जो क्रमशः रूप और नाम कहलाते हैं। इस वाद के जड़ और चेतन दोनों सक्ष्म तत्त्व परमाणुरूप हैं, श्रारंभवाद की तरह केवल जड़ तत्त्व ही परमाणु रूप नहीं। इस वाद में परमाणु का स्वीकार होते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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