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जैन धर्म और दर्शन भी उसका स्वरूप आरंभवाद के परमाणु से बिलकुल भिन्न माना गया है। आरंभवाद में परमाणु अपरिणामी होते हुए भी उनमें गुणधर्मों की उत्तादविनाश परंपरा अलग मानी जाती है। जब कि यह प्रतीत्यसमुत्पादवाद उस गुणधर्मों की उत्पादविनाश परंपरा को ही अपने मत में विशिष्ट रूप से ढालकर उसके आधारभत स्थायी परमाणु द्रव्यों को बिलकुल नहीं मानता। इसी तरह चेतन तत्त्व के विषय में भी यह वाद कहता है कि स्थायी ऐसे एक या अनेक कोई चेतन तत्त्व नहीं । यद्यपि सूक्ष्म जड़ उत्पादविनाशशाली परंपरा की तरह दूसरी चैतन्यरूप उत्पादविनाशशाली परंपरा भी मूल में जड़ से भिन्न ही सूक्ष्म जगत में विद्यमान है जिसका कोई स्थायी आधार नहीं। इस वाद के परमाणु इसलिए परमाणु कहलाते हैं कि वे सबसे अतिसूक्ष्म और अविभाज्य मात्र हैं। पर इस लिए परमाणु नहीं कहलाते कि वे कोई अविभाज्य स्थायी द्रव्य हों। यह वाद कहता है कि गुणधर्म रहित कूटस्थ चेतन तत्त्व जैसे अनुपयोगी हैं वैसे ही गुणषमों का उत्पादविनाश मान लेने पर उसके आधार रूप से फिर स्थायी द्रव्य की कल्पना करना भी निरर्थक है। अतएव इस वाद के अनुसार सूचम जगत में दो धाराएँ फलित होती हैं जो परस्पर बिलकुल भिन्न होकर भी एक दूसरे के असर से खाली नहीं । प्रधान परिणाम या ब्रह्म परिणामवाद से इस वाद में फर्क यह है कि इसमें उक्त दोनों वादों की तरह किसी भी स्थायी द्रव्य का अस्तित्व नहीं माना जाता। ऐसा शंकु या कीलक स्थानीय स्थायी द्रव्य न होते हुए भी पूर्व परिणाम क्षण का यह स्वभाव है कि वह नष्ट होते-होते दूसरे परिणाम क्षण को पैदा करता ही जाएगा अर्थात् उत्तर परिणाम क्षण विनाशोन्मुख पूर्व परिणाम के अस्तित्वमात्र के आश्रय से आप ही आप निराधार उत्पन्न हो जाता है। इसी मान्यता के कारण यह प्रतीत्यसमुत्पादवाद कहलाता है। वस्तुतः प्रतीत्यसमुत्पादवाद परमाणु वाद भी है और परिणामवाद भी। फिर भी तात्त्विक रूप में वह दोनों से भिन्न है। ४-विवर्तवाद-विवर्तवाद के मुख्य दो भेद ---
विवर्तवाद के मुख्य दो भेद हैं-(अ) नित्य ब्रह्म विवर्त और (ब) क्षणिक विज्ञान विवर्त । दोनों विवर्तवाद के अनुसार स्थल विश्व यह निरा भासमात्र या कल्पना मात्र है जो माया या वासनाजनित है । विवर्तवाद का अभिप्राय यह है कि जगत् या विश्व कोई ऐसी वस्तु नहीं हो सकती जिसमें बाह्य और आन्तरिक या स्थल और सूक्ष्म तत्त्व अलग-अलग और खण्डित हों। विश्व में जो कुछ वास्तविक सत्य हो सकता है वह एक ही हो सकता है क्योंकि विश्व वस्तुतः अखण्ड और
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