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प्रमेयविषयकवाद
३५५ नाओं के तथा परंपरागत भिन्न भिन्न कल्पनाओं के आधार पर सूक्ष्म प्रमेय के क्षेत्र में भी अनेक मत व सम्प्रदाय स्थिर हुए जिनको हम अति संक्षेप में दो विभागों में बाँटकर समझ सकते हैं। एक विभाग तो वह जिसमें जड़ और चेतन दोनों प्रकार के सूक्ष्म तत्त्वों को माननेवालों का समावेश होता है। दूसरा वह जिसमें केवल चेतन या चैतन्य रूप ही सूक्ष्म तत्त्व को माननेवालों का समावेश होता है । पाश्चात्य तत्त्वज्ञान की अपेक्षा भारतीय तत्त्वज्ञान में यह एक ध्यान देने योग्य भेद है कि इसमें सूक्ष्म प्रमेय तत्त्व माननेवाला अभी तक कोई ऐसा नहीं हुआ जो स्थूल भौतिक विश्व की तह में एक मात्र सूक्ष्म जड़ तत्त्व ही मानता हो और सूक्ष्म जगत में चेतन तत्त्व का अस्तित्व ही न मानता हो। इसके विरुद्ध भारत में ऐसे तत्त्वज्ञ होते आए हैं जो स्थूल विश्व के अंतस्तल में एक मात्र चेतन तत्त्व का सूक्ष्म जगत मानते हैं । इसी अर्थ में भारत को चैतन्यवादी समझना चाहिए । भारतीय तत्त्वज्ञान के साथ पुनर्जन्म, कर्मवाद और बंध-मोश की धार्मिक या आचरणलक्षी कल्पना भी मिली हुई है जो सूक्ष्म विश्व मानने वाले सभी को निर्विवाद मान्य है और सभी ने अपने २ तत्त्वज्ञान के ढांचे के अनुसार चेतन तत्त्व के साथ उसका मेल बिठाया है । इन सूक्ष्मतत्त्वदर्शी परम्परात्रों में मुख्यतया चार वाद ऐसे देखे जाते हैं जिनके बलपर उस-उस परंपरा के प्राचार्यों ने स्थूल और सूक्ष्म विश्व का संबंध बतलाया है या कार्यकरण का मेल बिठाया है । वे वाद ये हैं-१ आरंभवाद, २ परिणामवाद, ३ प्रतीत्यसमुत्पादवाद, ४ विवर्तवाद ।
आरम्भवाद के संक्षेप में चार लक्षण हैं-१-परस्पर भिन्न ऐसे अनंत मूल कारणों का स्वीकार, २-कार्य कारण का आत्यंतिक भेद ३-कारण नित्य हो या अनित्य पर कार्योत्पत्ति में उसका अपरिणामी ही रहना, ४-अपूर्व अर्थात् उत्पति के पहले असत् ऐसे कार्य की उत्पत्ति या किञ्चित्कालीन सत्ता ।
परिणामवाद के लक्षण ठीक आरंभवाद से उलटे हैं-१ एक ही मूल कारण का स्वीकार २-कार्यकारण का वास्तविक अभेद, ३-नित्य कारण का भी परिणामी होकर ही रहना तथा प्रवृत्त होना ४-कार्य मात्र का अपनेअपने कारण में और सब कार्यों का मूल कारण में तीनों काल में अस्तित्व अर्थात् अपूर्व वस्तु की उत्पत्ति का सर्वथा इन्कार । __प्रतीत्यसमुत्पादवाद के तीन लक्षण हैं-१-कारण और कार्य का प्रात्यतिक भेद, २—किसी भी नित्य या परिणामीकारण का सर्वथा अस्वीकार, ३प्रथम से असत् ऐसे कार्यमात्र का उत्पाद ।
विवर्तवाद के तीन लक्षण ये हैं-१-किसी एक पारमार्थिक सत्य कास्वी कार
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