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________________ ३५४ जैन धर्म और दर्शन किसी इन्द्रिय या अनिन्द्रिय का प्रमाणसामर्थ्य स्वीकार नहीं करता । यह पक्ष केवल पूर्व मीमांसक का ही है। यद्यपि वह अन्य विषयों में सांख्य-योगादि की तरह उभयाधिपत्य पक्ष का ही अनुगामी है। फिर भी धर्म और अधर्म इन दो विषयों में वह आगम मात्र का ही सामर्थ्य मानता है। यद्यपि वेदांत के अनुसार ब्रह्म के विषय में आगम का ही प्राधान्य है फिर भी वह अागमाधिपत्य पक्ष में इसलिए नहीं आ सकता कि ब्रह्म के विषय में ध्यानशुद्ध अंतःकरण का भी सामर्थ्य उसे मान्य है। ५-प्रमाणोपप्लव पक्ष वह है जो इन्द्रिय, अनिन्द्रिय या आगम किसी का साद्गुण्य या सामर्थ्य स्वीकार नहीं करता। वह मानता है कि ऐसा कोई साधन गुणसम्पन्न है ही नहीं जो अबाधित ज्ञान की शक्ति रखता हो। सभी साधन उसके मन से पंगु या विप्रलंभक हैं । इसका अनुगामी तत्त्वोपप्लपवादी कहलाता है जो आखिरी हद का चार्वाक ही है । यह पक्ष जयराशिकृत तत्त्वोपप्लव में स्पष्टतया प्रतिपादित हुआ है। उक्त पांच में से तीसरा उभयाधिपत्य पक्ष ही जैनदर्शन का है क्योंकि वह जिस तरह इंद्रियों का स्वतंत्र सामर्थ्य मानता है उसी तरह वह अनिन्द्रिय अर्थात् मन और आत्मा दोनों का अलग-अलग भी स्वतंत्र सामर्थ्य मानता है । आत्मा के स्वतंत्र सामर्थ्य के विषय में न्याय-वैशेषिक आदि के मंतव्य से जैन दर्शन के मंतव्य में फर्क यह है कि जैन दर्शन सभी आत्मात्रों का स्वतंत्र प्रमाणसामर्थ्य वैसा ही मानता है जैसा न्याय आदि ईश्वर मात्र का। जैनदर्शन प्रमाणोपप्लव पक्ष का निराकरण इसलिए करता है कि उसे प्रमाणसामर्थ्य अवश्य इष्ट है। वह विज्ञान, शून्य और ब्रह्म इन तीनों वादों का निरास इसलिए करता है कि उसे इन्द्रियों का प्रमाणसामर्थ्य भी मान्य है । वह आगमाधिपत्य पक्ष का भी विरोधी है सो इसलिए कि उसे धर्माधर्म के विषय में अनिन्द्रिय अर्थात् मन और आत्मा दोनों का प्रमाणसामर्थ्य इष्ट है । ४-प्रमेयप्रदेश का विस्तार जैसी प्रमाणशक्ति की मर्यादा वैसा ही प्रमेय का क्षेत्र विस्तार, अतएव मात्र इंद्रिय सामर्थ्य मानने वाले चार्वाक के सामने सिर्फ स्थूल या दृश्य विश्व का ही प्रमेयक्षेत्र रहा, जो एक या दूसरे रूप में अनिन्द्रिय प्रमाण का सामर्थ्य मानने वालों की दृष्टि में अनेकधा विस्तीर्ण हुआ। अनिन्द्रियसामर्थ्यवादी कोई क्यों न हो पर सबको स्थूल विश्व के अलावा एक सूक्ष्म विश्व भी नजर आया। सूक्ष्म विश्व का दर्शन उन सबका बराबर होने पर भी उनकी अपनी जुदी-जुदी कल्प. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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