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________________ २३ प्रमाण की मर्यादा ३५३ अपने को प्रत्यक्षमात्रवादी कहता है; इसका अर्थ इतना ही है कि अनुमान, शब्द यदि कोई भी लौकिक प्रमाण क्यों न हो पर उसका प्रामाण्य इन्द्रियप्रत्यक्ष के सिवाय कभी संभव नहीं । अर्थात् इन्द्रिय प्रत्यक्ष से बाधित नहीं ऐसा कोई भी ज्ञानव्यापार र प्रमाण कहा जाए तो इसमें चार्वाक को आपत्ति नहीं । २ -- अनिन्द्रिय के अंतःकरण-मन, चित्त और आत्मा ऐसे तीन अर्थ फलित होते हैं, जिनमें से चित्तरूप अनिन्द्रिय का आधिपत्य माननेवाला श्रनिन्द्रियाधिपत्य पक्ष है । इस पक्ष में विज्ञानवाद, शून्यवाद और शांकरवेदांत का समावेश है । इस पक्ष के अनुसार यथार्थ ज्ञान का संभव विशुद्ध चित्त के द्वारा ही माना जाता है । यह पक्ष इन्द्रियों की सत्यज्ञानजनन शक्ति का सर्वथा इन्कार करता है और कहता है जि इन्द्रियाँ वास्तविक ज्ञान कराने में पंगु ही नहीं बल्कि धोखे - बाज भी अवश्य है । इसके मंतव्य का निष्कर्ष इतना ही है किं चित्त, खासकर ध्यानशुद्धसात्त्विक चित्त से बाधित या उसका संवाद प्राप्त न कर सकनेवाला कोई ज्ञान प्रमाण हो ही नहीं सकता चाहे वह भले ही लोकव्यवहार में प्रमाण रूप से माना जाता हो । ३ – उभयाधिपत्य पक्ष वह है जो चार्वाक की तरह इन्द्रियों को ही सब कुछ मानकर इन्द्रिय निरपेक्ष मन का सामर्थ्य स्वीकार नहीं करता और न इन्द्रियों को पंगु या धोखेबाज मानकर केवल अनिन्द्रिय या चित्त का ही सामर्थ्य स्वीकार करता है । यह पक्ष मानता है कि चाहे मन की मदद से ही सही पर इन्द्रियाँ सम्पन्न हो सकती हैं और वास्तविक ज्ञान पैदा कर सकती हैं । इसी तरह यह मानता है कि इन्द्रियों की मदद जहाँ नहीं है वहाँ भी अनिन्द्रिय यथार्थ ज्ञान कर सकता है । इसी से इसे उभयाधिपत्य पक्ष कहा है । इसमें सांख्य-योग, न्यायवैशेषिक, मीमांसक, आदि दर्शनों का समावेश है । सांख्य योग इन्द्रियों का साद्गुण्य मानकर भी अंतःकरण की स्वतंत्र यथार्थ शक्ति मानता है । न्याय-वैशेषिक आदि भी मन की वैसी ही शक्ति मानते हैं पर फर्क यह है कि सांख्य योग श्रात्मा का स्वतंत्र प्रमाण सामर्थ्य नहीं मानते क्योंकि वे प्रमाण सामर्थ्य बुद्धि में ही मानकर पुरुष या चेतन को निरतिशय मानते हैं । जब कि न्याय-वैशेषिक चाहे ईश्वर के आत्मा का ही सही पर श्रात्मा का स्वतंत्र प्रमाणसामर्थ्य मानते हैं । अर्थात् वे शरीर-मन का अभाव होने पर भी ईश्वर में ज्ञानशक्ति मानते हैं 1 वैभाषिक और सौत्रांतिक भी इसी पक्ष के अंतर्गत हैं। क्योंकि वे भी इन्द्रिय और मन दोनों का प्रमाणसामर्थ्य मानते हैं । ४ - श्रागमाधिपत्य पक्ष वह है जो किसी न किसी विषय में श्रागम के सिवाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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