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काल
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वर्णन किया है, व्यतिरेक की विवक्षा नहीं की है; इसी से यहाँ का वर्णन पञ्चसंग्रह के वर्णन से भिन्न मालूम पड़ता है । अन्वय-जैसे; मिथ्यात्व के समय, अविरति के समय, कषाय के समय और योग के समय सातवेदनीय का बन्ध अवश्य होता है; इसी प्रकार मिथ्यात्व के समय सोलह का बन्ध, मिथ्यात्व के समय तथा अविरति के समय पैंतीस का बन्ध और मिथ्यात्व के समय, अविरति के समय तथा कषाय के समय शेष प्रकृतियों का बन्ध अवश्य होता है। इस अन्वयमात्र को लक्ष्य में रखकर श्री देवेन्द्र सूरि ने एक, सोलह, पैंतीस और अड़सठ के बन्ध को क्रमशः चतुर्हेतुक, एक-हेतुक, द्वि-हेतुक और त्रि-हेतुक कहा है। उक्त चारों बन्धों का व्यतिरेक तो पञ्चसंग्रह के वर्णनानुसार केवल एक-एक हेतु के साथ घट सकता है । पञ्चसंग्रह और यहाँ की वर्णन-शैली में भेद है, तात्पर्य में नहीं। __ तत्त्वार्थ-अ० ८ सू० १में बन्ध के हेतु पाँच कहे हुए हैं, उसके अनुसार अ० ६ सू० १की सर्वार्थसिद्धि में उत्तर प्रकृतियों के और बन्ध-हेतु के कार्य-कारण-भाव का विचार किया है। उसमें सोलह के बन्ध को मिथ्यात्व-हेतुक, उन्तालीस के बन्ध को अविरति-हेतुक, छह के बन्ध को प्रमाद-हेतुक्र, अट्ठावन के बन्ध को कषायहेतुक और एक के बन्ध को योग-हेतुक बतलाया है। अविरति के अनंतानुबन्धिकषाय-जन्य, अप्रत्याख्यानावरणकषाय-जन्य, और प्रत्याख्यानावरणकषायजन्य, ये तीन भेद किये हैं। प्रथम अविरति को पच्चीस के बन्ध का, दूसरी को दस के बन्ध का और तीसरी को चार के बन्ध का कारण दिखाकर कुल उन्तालीस के बन्ध को अविरति-हेतुक कहा है । पञ्चसंग्रह में जिन अड़सठ प्रकृतियों के बन्ध को कषाय-हेतुक माना है, उनमें से चार के बन्ध को प्रत्याख्यानावरणकषाय-जन्य अविरति-हेतुक और छह के बन्ध को प्रमाद-हेतुक सर्वार्थसिद्धि में बतलाया है; इसलिए उसमें कषाय-हेतुक बन्धवाली अट्ठावन प्रकृतियाँ ही कही हुई हैं।
(१८) उपशमक और क्षपक का चारित्र
गुणस्थानों में एक-जीवाश्रित भावों की संख्या जैसी चोथे कर्मग्रंथ गाथा ७० में है, वैसी ही पञ्चसंग्रह के द्वार २ की ६४वीं गाथा में है; परंतु उक्त गाथा की टीका
और टबा में तथा पञ्चसंग्रह की उक्त गाथा की टीका में थोड़ा सा व्याख्या-भेद है । ___टीका-टबे में 'उपशमक'-'उएशान्त' दो पदों से नौवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ, ये तीन गुणस्थान ग्रहण किये गए हैं और 'अपूर्व' पद से आठवाँ गुणस्थानमात्र ।
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