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________________ ३३४ जैन धर्म और दर्शन वैदिकदर्शन में काल का स्वरूप. वैदिकदर्शनों में भी काल के संबन्ध में मुख्य दो पक्ष हैं। वैशेषिकदर्शनअ० २, प्रा०२ सूत्र ६-१०तथा न्यायदर्शन, काल को सर्वव्यापी स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। सांख्य--अ० २, सूत्र १२, योग तथा वेदान्त आदि दर्शन-काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर उसे प्रकृति-पुरुष (जड़चेतन) का ही रूप मानते हैं। यह दूसरा पक्ष, निश्चय-दृष्टि-मूलक है और पहला पक्ष, व्यवहार-मूलक । जैनदर्शन में जिसको 'समय' और दर्शनान्तरों में जिसको 'क्षण' कहा है, उसका स्वरूप जानने के लिए तथा 'काल' नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, वह केवल लौकिक दृष्टिवालों की व्यवहार-निर्वाह के लिए क्षणानुक्रम के विषय में की हुई कल्पनामात्र है, इस बात को स्पष्ट समझने के लिए योगदर्शन, पा० ३ सू० ५२ का भाष्य देखना चाहिए । उक्त भाष्य में कालसंबन्धी जो विचार है, वही निश्चय-दृष्टि-मूलक, अतएव तात्त्विक जान पड़ता है। विज्ञान की सम्मति अाजकल विज्ञान की गति सत्य दिशा की ओर है। इसलिए कालसंबन्वी विचारों को उस दृष्टि के अनुसार भी देखना चाहिए। वैज्ञानिक लोग भी काल , को दिशा की तरह काल्पनिक मानते हैं, वास्तविक नहीं । अतः सब तरह से विचार करने पर यही निश्चय होता है कि काल को अलग स्वतन्त्र द्रव्य मानने में दृढ़तर प्रमाण नहीं है । (१७) 'मूल बन्ध-हेतु ___ यह विषय, पञ्चसंग्रह द्वा० ४ की १६ और २०वीं गाथा में है, किन्तु उसके वर्णन में चौथे कर्मग्रंथ पृ० १७६ की अपेक्षा कुछ भेद है । उसमें सोलह प्रकृतियों के बन्ध को मिथ्यात्वहेतुक, पैंतीस प्रकृतियों के बन्ध को अविरिति-हेतुक, अड़सठ प्रकृतियों के बन्ध को कषाय हेतुक और सातवेदनीय के बन्ध को योग-हेतुक कहा है । यह कथन अन्वय व्यतिरेक, उभय-मूलक कार्य-कारण-भाव को लेकर किया गया है। जैसे-मिथ्यात्व के सद्भाव में सोलह का बन्ध और उसके अभाव में सोलह के बन्ध का अभाव होता है; इसलिए सोलह के बन्ध का अन्वय-व्यतिरेक मिथ्यात्व के साथ घट सकता है। इसी प्रकार पैंतीस के बन्ध का अविरति के साथ, अड़सठ के बंध का कषाय के साथ और सातवेदनीय के बन्ध का योग के साथ अन्वयव्यतिरेक समझना चाहिए। परंतु चौथे कर्मग्रंथ में केवल अन्वय-मूलक कार्य-कारण-भाव को लेकर संबंध का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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