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________________ ३३६ जैन धर्म और दर्शन नौवें आदि तीन गुणस्थान में उपशमश्रेणिवाले श्रपशमिकसम्यक्त्वी को या क्षायिकसम्यक्त्वी को चारित्र पशमिक माना है । आठवें गुणस्थानों में पशमिक या क्षायिक किसी सम्यक्त्ववाले को श्रपशमिक चारित्र इष्ट नहीं है, किन्तु क्षायोपशमिक | इसका प्रमाण गाथा में 'अपूर्व शब्द का अलग ग्रहण करना है; क्योंकि यदि आठवें गुणस्थान में भी औपशमिकचारित्र इष्ट होता तो 'अपूर्व' शब्द अलग ग्रहण न करके उपशमक शब्द से ही नौवें आदि गुणस्थान की तरह आठवें का भी • सूचन किया जाता। नौवें और दसवें गुणस्थान के क्षपकश्रेणि-गत-जीव-संबन्धी भावों का व चारित्र का उल्लेख टीका या टबे में नहीं है । पञ्चसंग्रह की टीका में श्री मलयगिरि ने 'उपशमक' - 'उपशान्त' पद से आठवें से ग्यारहवें तक उपशमश्रेणिवाले चार गुणस्थान और 'अपूर्व' तथा 'क्षीण' पद से आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ और बारहवाँ, ये क्षपकश्रेणिवाले चार गुणस्थान ग्रहण किये हैं । उपशमश्रेणिवाले उक्त चारों गुणस्थान में उन्होंने औपशमिक चारित्र माना है, पर क्षपकश्रेणिवाले चारों गुणस्थान के चारित्र के संबन्ध में कुछ उल्लेख नहीं किया है । 1 ग्यारहवें गुणस्थान में संपूर्ण मोहनीय का उपशम हो जाने के कारण सिर्फ औपशमिक चारित्र है, नौवें और दसवें गुणस्थान में औपशमिक क्षायोपशमिक दो चारित्र हैं; क्योंकि इन दो गुणस्थानों में चारित्र मोहनीय की कुछ प्रकृतियाँ उपशान्त होती हैं, सत्र नहीं । उपशान्त प्रकृतियों की अपेक्षा से श्रपशमिक और अनुपशान्त प्रकृतियों की अपेक्षा से क्षायोपशमिक चारित्र समझना चाहिए । यह बात इस प्रकार स्पष्टता से नहीं कही गई है परन्तु पञ्च० द्वा० ३ की २५वीं गाथा की टीका देखने से इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं रहता क्योंकि उसमें सूक्ष्मसंपराय चारित्र को, जो दसवें गुणस्थान में ही होता है, क्षायोपशमिक कहा है । उपशमश्रेणिवाले आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्र मोहनीय के उपशम का आरम्भ या कुछ प्रकृतियों का उपशम होने के कारण पशमिक चारित्र, जैसे पञ्चसंग्रह टीका में माना गया है, वैसे ही क्षपकश्रेणिवाले आठवें आदि तीनों गुणस्थान में चारित्रमोहनीय के क्षय का आरम्भ या कुछ प्रकृतियों का क्षय होने के कारण क्षायिकचारित्र मानने में कोई विरोध नहीं दीख पड़ता । गोम्मटसार में उपशमश्रेणिवाले आठवें यदि चारों गुणस्थान में चारित्र पशमिक ही माना है और क्षायोपशमिक का स्पष्ट निषेध किया है । इसी तरह क्षपकश्रेणिवाले चार गुणस्थान में क्षायिक चारित्र ही मानकर क्षायोपशमिक का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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