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________________ दृष्टिवाद ३२७ (१) जिन पश्चिमीय देशों में स्त्रियों को पढ़ने आदि की सामग्री पुरुषों के समान प्राप्त होती है, वहाँ पर इतिहास देखने से यही जान पड़ता है कि स्त्रियाँ पुरुषों के तुल्य हो सकती हैं सही, पर योग्य व्यक्तियों की संख्या, स्त्रीजाति की अपेक्षा पुरुष जाति में अधिक पाई जाती है। (२) कुन्दकुन्द-प्राचार्य सरीखे प्रतिपादक दिगम्बर-श्राचार्यों ने स्त्रीजाति को शारीरिक और मानसिक-दोष के कारण दीक्षा तक के लिए अयोग्य ठहराया-- 'लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसम्म । भणिओ सुहमो काओ, तासं कह होइ पव्वजा ।।' -षट्पाहुड-सूत्रपाहुड गा० २४-२५ । और वैदिक विद्वानों ने शारीरिक-शुद्धि को अग्र-स्थान देकर स्त्री और शूद्रजाति को सामान्यतः वेदाध्ययन के लिए अनधिकारी बतलाया 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयाता' इन विपक्षी सम्प्रदायों का इतना असर पड़ा कि उससे प्रभावित होकर पुरुषजाति के समान स्त्रीजाति की योग्यता मानते हुए भी श्वेताम्बर-आचार्य उसे विशेष-अध्ययन के लिए अयोग्य बतलाने लगे होंगे। ग्यारह अङ्ग आदि पढ़ने का अधिकार मानते हुए भी सिर्फ बारहवें अङ्ग के निषेध का सबब यह भी जान पड़ता है कि दृष्टिवाद का व्यवहार में महत्त्व बना रहे । उस समय विशेषतया शारीरिक-शुद्धिपूर्वक पढ़ने में वेद आदि ग्रन्थों की महत्ता समझी जाती थी। दृष्टिवाद सब अङ्गों में प्रधान था, इसलिए व्यवहारदृष्टि से उसकी महत्ता रखने के लिए अन्य बड़े पड़ोसी समाज का अनुकरण कर लेना स्वाभाविक है। इस कारण पारमार्थिक दृष्टि से स्त्री को संपूर्णतया योग्य मानते हुए भी प्राचार्यों ने व्यावहारिक दृष्टि से शारीरिक-अशुद्धि का खयाल कर उसको शाब्दिक-अध्ययनमात्र के लिए अयोग्य बतलाया होगा। भगवान् गौतमबुद्ध ने स्त्रीजाति को भिक्षुपद के लिए अयोग्य निर्धारित किया था परन्तु भगवान् महावीर ने तो प्रथम से ही उसको पुरुष के समान भिक्षुपद की अधिकारिणो निश्चित किया था। इसी से जैनशासन में चतुर्विध संघ प्रथम से ही स्थापित है और साधु तथा श्रावकों की अपेक्षा साध्वियों तथा श्राविकाओं की संख्या प्रारम्भ से ही अधिक रही है परन्तु अपने प्रधान शिष्य 'आनन्द' के आग्रह से बुद्ध भगवान् ने जब स्त्रियों को भिद पद दिया, तब उनकी सख्या धीरेधीरे बहुत बढ़ी और कुछ शताब्दियों के बाद अशिक्षा, कुप्रबन्ध आदि कई कारणों से उनमें बहुत-कुछ आचार-भ्रंश हुआ, जिससे कि बौद्ध-संघ एक तरह से दूषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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