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________________ ३२८ जैन धर्म और दर्शन समझा जाने लगा। सम्भव है, इस परिस्थिति का जैन-सम्प्रदाय पर भी कुछ असर पड़ा हो, जिससे दिगम्बर-श्राचार्यों ने स्त्री को भिक्षपद के लिए ही अयोग्य करार दिया हो और श्वेताम्बर-अाचार्यों ने ऐसा न करके स्त्रीजाति का उच्च अधिकार कायम रखते हुए भी दुर्बलता, इन्द्रिय-चपलता आदि दोषों को उस जाति में विशेष रूप से दिखाया हो; क्योंकि सहचर-समाजों के व्यवहारों का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ना अनिवार्य है। (१४) चक्षुर्दर्शन के साथ योग चौथे कर्मग्रन्थ गा० २८ में चक्षुर्दर्शन में तेरह योग माने गए हैं, पर श्री मलयगिरिजी ने उसमें ग्यारह योग बतलाए हैं। कार्मण, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र, ये चार योग छोड़ दिए हैं। -पञ्च० द्वा० १ की १२ ची गाथा की टीका । ग्यारह मानने का तात्पर्य यह है कि जैसे अपर्याप्त अवस्था में चतुर्दर्शन न होने से उसमें कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो अपर्याप्त-अवस्था-भावी योग नहीं होते, वैसे ही वैक्रियमिश्र या आहारकमिश्र-काय योग रहता है, तब तक अर्थात् वैक्रियशरीर या आहारकशरीर अपूर्ण हो तब तक चक्षुर्दर्शन नहीं होता, इसलिए उसमें वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र-योग भी न मानने चाहिए। ___ इस पर यह शङ्का हो सकती है कि अपर्याप्त-अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन जाने के बाद चौथे कर्मग्रन्थ की १७ वी गाथा में उल्लिखित मातान्तर के अनुसार यदि चतुर्दर्शन मान लिया जाए तो उसमें औदारिकमिश्र काययोग, जो कि अपर्याप्त-अवस्थाभावी है, उसका अभाव कैसे माना जा सकता है ? इस शङ्का का समाधान यह किया जा सकता है कि पञ्चसंग्रह में एक ऐसा मतान्तर है जो कि अपर्याप्त-अवस्था में शरीर पर्याप्ति पूर्ण न बन जाए तब तक मिश्रयोग मानता है, बन जाने के बाद नहीं मानता । -पञ्च० द्वा० १की ७वीं गाथा की टीका । इस मत के अनुसार अपर्याप्त-अवस्था में जब चतुर्दर्शन होता है तब मिश्रयोग न होने के कारण चक्षुर्दर्शन में औदारिकमिश्र काययोग का वर्जन विरुद्ध नहीं है। इस जगह मनःपर्याय ज्ञान में तेरह योग माने हुए हैं, जिनमें आहारक द्विक का समावेश है। पर गोम्मटसार-कर्मकाण्ड यह नहीं मानता; क्योंकि उसमें लिखा है कि परिहार विशुद्ध चारित्र और मनःपर्यायज्ञान के समय आहारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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