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________________ ३२६ जैन धर्म और दर्शन कहना कहाँ तक संगत है ? शाब्दिक-अध्ययन के निषेध के लिए तुच्छत्व अभिमान आदि जो मानसिक-दोष दिखाए जाते हैं, वे क्या पुरुषजाति में नहीं होते ? यदि विशिष्ट पुरुषों में उक्त दोषों का अभाव होने के कारण पुरुष-सामान्य के लिए शाब्दिक अध्ययन का निषेध नहीं किया है तो क्या पुरुष-तुल्य विशिष्ट स्त्रियों का संभव नहीं है ? यदि असंभव होता तो स्त्री-मोक्ष का वर्णन क्यों किया जाता ? शाब्दिकअध्ययन के लिए जो शारीरिक-दोषों की संभावना की गई है, वह भी क्या सब स्त्रियों को लागू पड़ती है ? यदि कुछ स्त्रियों को लागू पड़ती है तो क्या कुछ पुरुषों में भी शारीरिक-अशुद्धि की संभावना नहीं है ? ऐसी दशा में पुरुष-जाति को छोड़ स्त्री-जाति के लिए शाब्दिक अध्ययन का निषेध किस अभिप्राय से किया है ? इन तकों के संबन्ध में संक्षेप में इतना ही कहना है कि मानसिक या शारीरिक-दोष दिखाकर शाब्दिक-अध्ययन का जो निषेध किया गया है, वह प्रायिक जान पड़ता है, अर्थात् विशिष्ट स्त्रियों के लिए अध्ययन का निषेध नहीं है। इसके समर्थन में यह कहा जा सकता है कि जब विशिष्ट स्त्रियाँ, दृष्टिवाद का अर्थज्ञान वीतरागभाव, केवलज्ञान और मोक्ष तक पाने में समर्थ हो सकती हैं, तो फिर उनमें मानसिक दोषों की संभावना ही क्या है ? तथा वृद्ध, अप्रमत्त और परमपवित्र प्राचारवाली स्त्रियों में शारीरिक-अशुद्धि कैसे बतलाई जा सकती है ? जिनको दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए योग्य समझा जाता है, वे पुरुष भी, जैसेस्थूलभद्र, दुर्बलिका पुष्यमित्र आदि, तुच्छत्व, स्मृति-दोष आदि कारणों से दृष्टिवाद की रक्षा न कर सके। 'तेण चिंतियं भगिणीणं इढि दरिसेमि त्ति सीहरूवं विउव्वइ ।' -श्रावश्यकवत्ति, पृ०६६८। 'ततो आयरिएहिं दुब्बलियपुस्समित्तो तस्स वायणायरिओ दिण्णो, ततो सो कइवि दिवसे वायणं दाऊण आयरियमुवहितो भणइ मम वायणं देतस्स नासति, जं च सण्णायघरे नाणुप्पेहियं, अतो मम अज्झरतस्स नवमं पुव्वं नासिहिति ताहे आयरिया चिंतेति-जइ ताव एयस्स परममेहाविस्स एवं झरंतस्स नासइ अन्नस्स चिरन चेव ।' -आवश्यकवृत्ति, पृ० ३०८। ... ऐसी वस्तुस्थिति होने पर भी स्त्रियों को ही अध्ययन का निषेध क्यों किया गया ? इस प्रश्न का उत्तर दो तरह से दिया जा सकता है - (१) समान सामग्री मिलने पर भी पुरुषों के मुकाबिले में स्त्रियों का कम संख्या में योग्य होना और (२) ऐतिहासिक-परिस्थिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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