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जैन धर्म और दर्शन (१०) 'अनाहारक'
अनाहारक जीव दो प्रकार के होते हैं-छद्यस्थ और वीतराग। वीतराग में जो अशरीरी (मुक्त) हैं, वे सभी सदा अनाहारक ही हैं; परन्तु जो शरीरधारी हैं, वे केवलिसमुद्घात के तीसरे चौथे और पाँचवे समय में ही अनाहारक होते हैं। छद्यस्थ जीव, अनाहारक तभी होते हैं, जब वे विग्रहगति में वर्तमान हों।। ___जन्मान्तर ग्रहण करने के लिए जीव को पूर्व-स्थान छोड़कर दूसरे स्थान में जाना पड़ता है। दूसरा स्थान पहले स्थान से विश्रेणि-पतित ( वक्र-रेखा में ) हो, तब उसे वक्र-गति करनी पड़ती है । वक्र-गति के संबन्ध में इस जगह तीन बातों पर विचार किया जाता है
(१) वक्र गति में विग्रह (घुमाव ) की संख्या, (२) वक्र-गति का कालपरिमाण और (३) वक्र-गति में अनाहारकत्व का काल-मान ।
(१) कोई उत्पत्ति-स्थान ऐसा होता है कि जिसको जीव एक विग्रह करके ही प्राप्त कर लेता है । किसी स्थान के लिए दो विग्रह करने पड़ते हैं और किसी के लिए तीन भी। नवीन उत्पत्ति-स्थान, पूर्व-स्थान से कितना ही विश्रेणि-पतित क्यों न हो, पर वह तीन विग्रह में तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है।
इस विषय में दिगम्बर-साहित्य में विचार-भेद नजरनहीं आता; क्योंकि- .
'विग्रहवती च संसारिणः प्राक चतुभ्यः । -तत्त्वार्थ-अ० २, सू० २८ । इस सूत्र की सर्वार्थसिद्धिन्दीका में श्री पूज्यपादस्वामी ने अधिक से अधिक तीन विग्रहवाली गति का ही उल्लेख किया है। तथा
_ 'एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः।' -तत्त्वार्थ-अ० २, सूत्र ३० । - इस सूत्र के छठे राजवार्तिक में भट्टारक श्रीअकलङ्कदेव ने भी अधिक से अधिक त्रि-विग्रह-गति का ही समर्थन किया है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती भी गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ६६६वीं गाथा में उक्त मत का ही निर्देश करते हैं।
श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में इस विषय पर मतान्तर उल्लिखित पाया जाता है'विग्रहवती च संसारिणः प्राकचतुर्व्यः। -तत्त्वार्थ-अ० २, सूत्र २६ । 'एकं द्वौ वाऽनाहारकः ।'
- तत्त्वार्थ-अ० २, सू० ३० । श्वेताम्बर-प्रसिद्ध तत्त्वार्थ-अ० २ के भाष्य में भगवान् उमास्वाति ने तथा उसकी टीका में श्रीसिद्धसेनगणि ने त्रि-विग्रहगति का उल्लेख किया है। साथ ही उक्त भाष्य की टीका में चतुर्विग्रह-गति का मतान्तर भी दरसाया है । इस मतान्तर का उल्लेख वृहत्संग्रहणी की ३२५वीं गाथा में और श्रीभगवती-शतक ७, उद्देश्य
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