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अनाहारक
३१६ १ की तथा शतक १४, उद्देश्य १ की टीका में भी है। किन्तु इस मतान्तर का जहाँ-कहीं उल्लेख है, वहाँ सब जगह यही लिखा है कि चतुर्विग्रहगति का निर्देश किसी मूल सूत्र में नहीं है। इससे जान पड़ता है कि ऐसी गति करनेवाले जीव ही बहुत कम हैं। उक्त सूत्रों के भाष्य में तो यह स्पष्ट लिखा है कि त्रि-विग्रह से अधिक विग्रहवाली गति का संभव ही नहीं है। ___ 'अविग्रहा एकविग्रहा द्विविग्रहां त्रिविग्रहा इत्येताश्चतुस्समयपराश्चतुर्विधा गतयो भवन्ति, परतो न सम्भवन्ति ।' भाष्य के इस कथन से तथा दिगम्बर-ग्रंथों में अधिक से अधिक त्रि-विग्रह गति का ही निर्देश पाये जाने से और भगवती-टीका आदि में जहाँ-कहीं चतुर्विग्रहगति का मतान्तर हैं, वहाँ सब जगह उसकी अल्पता दिखाई जाने के कारण अधिक से अधिक तीन विग्रहवाली गति ही का पक्ष बहुमान्य समझना चाहिए ।
(२) वक्र-गति के काल-परिमाण के संबन्ध में यह नियम है कि वक्रगति का समय विग्रह की अपेक्षा एक अधिक ही होता है। अर्थात् जिस गति में एक विग्रह हो, उसका काल-मान दो समयोंका, इस प्रकार द्वि विग्रहगति का काल-मान . तीन समयों का और त्रि-विग्रहगति का काल-मान चार समयों का है। इस नियम
में श्वेताम्बर-दिगम्बर का कोई मत-भेद नहीं । हाँ ऊपर चतुर्विग्रह गति के मतान्तर का जो उल्लेख किया है, उसके अनुसार उस गति का काल-मान पाँच समयों का बतलाया गया है।
(३) विग्रहगति में अनाहारकत्व के काल-भान का विचार व्यवहार और निश्चय, दो दृष्टियों से किया हुआ पाया जाता है । व्यवहारवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व-शरीर छोड़ने का समय, जो वक्र-गति का प्रथम समय है, उसमें पूर्व-शरीर-योग्य कुछ पुद्गल लोमाहारद्वारा ग्रहण किए जाते है।--वृहत्संग्रहणी गा० ३२६ तथा उसकी टीका, लोक० सर्ग ३, श्लो०, ११०७ से आगे । परन्तु निश्चयवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व-शरीर छुटने के समय में, अर्थात् वक्रगति के प्रथम समय में न तो पूर्व-शरीर का ही संबन्ध है और न नया शरीर बना है; इसलिए उस समय किसी प्रकार के आहार का संभव नहीं।-लोक० स० ३, श्लो० १११५ से आगे । व्यवहारवादी हो या निश्चयवादी, दोनों इस बात को बराबर मानते हैं कि वक्र-गति का अंतिम समय, जिसमें जीव नवीन स्थान में उत्पन्न होता है, उसमें अवश्य आहार ग्रहण होता है । व्यवहार नय के अनुसार अनाहारकत्व का काल-मान इस प्रकार समझना चाहिए
एक विग्रह वाली गात, जिसकी काल-मर्यादा दो समय की है, उसके दोनों
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