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अचक्षुर्दर्शन
३१७ परन्तु श्रीजयसोमसूरि ने इस गाथा के अपने टबे में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले भी अचक्षुर्दर्शन मान कर उसमें अपर्याप्त जीवस्थान माने हैं।
और सिद्धान्त के आधार से बतलाया है कि विग्रहगति और कार्मणयोग में अवधिदर्शनरहित जीव को अचक्षुर्दर्शन होता है । इस पक्ष में प्रश्न यह होता है कि इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले द्रव्येन्द्रिय न होने से अचक्षुर्दर्शन कैसे मानना ? इसका उत्तर दो तरह से दिया जा सकता है।
(१) द्रव्येन्द्रिय होने पर द्रव्य और भाव, उभय इन्द्रिय-जन्य उपयोग और 'द्रव्येन्द्रिय के अभाव में केवल भावेन्द्रिय-जन्य उपयोग, इस तरह दो प्रकार का उपयोग है। विग्रहगति में और इन्द्रियपर्याप्ति होने के पहले, पहले प्रकार का उपयोग, नहीं हो सकता; पर दूसरे प्रकार का दर्शनात्मक सामान्य उपयोग माना जा सकता है । ऐसा मानने में तत्त्वार्थ-अ० २, सू० ६ की वृत्तिका___ 'अथवेन्द्रियनिरपेक्षमेव तत्कस्यचिद्भवेद् यतः पृष्ठत उपसर्पन्तं सर्प बुद्धयैवेन्द्रियव्यापारनिरपेक्षं पश्यतीति।' यह कथन प्रमाण है । सारांश, इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले उपयोगात्मक अचतुदर्शन मान कर समाधान किया जा सकता है।
(२) विग्रहगति में और इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले अचक्षुर्दर्शन माना जाता है, सो शक्तिरूप अर्थात् क्षयोपशमरूप, उपयोगरूप नहीं। यह समाधान, प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ४६वीं गाथा की टीका के
'त्रयाणामप्यचक्षुर्दर्शनं तस्यानाहारकावस्थायामपि लब्धिमाश्रित्याभ्युपगमात ।' इस उल्लेख के आधार पर दिया गया है।
प्रश्न-इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले जैसे उपयोगरूप या क्षयोपशमरूप अचक्षुर्दर्शन माना जाता है, वैसे ही चतुर्दर्शन क्यों नहीं माना जाता ?
उत्तर--चक्षुर्दर्शन, नेत्ररूप विशेष-इन्द्रिय-जन्य दर्शन को कहते हैं। ऐसा दर्शन उसी समय माना जाता है, जब कि द्रव्यनेत्र हो । अतएव चक्षुर्दर्शन को इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद ही माना है। अचक्षुर्दर्शन किसी-एक इन्द्रियजन्य सामान्य उपयोग को नहीं कहते; किन्तु नेत्र-भिन्न किसी द्रव्येन्द्रिय से होनेवाले, द्रव्यमन से होनेवाले या द्रव्येन्द्रिय तथा द्रव्यमन के अभाव में क्षयोपशममात्र से होनेवाले सामान्य उपयोग को कहते हैं। इसी से अचक्षुर्दर्शन को इन्द्रियपीप्ति पूर्ण होने के पहले और पीछे, दोनों अवस्थाओं में माना है ।
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