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________________ जैन धर्म और दर्शन सामान्य अर्थ; पर उसका पारिभाषिक अर्थ कुछ अधिक है। बन्धावलिका पूर्ण हो जाने पर किसी विवक्षित कर्म का जब क्षयोपशम शुरू होता है, तब विवक्षित वर्तमान समय से प्रावलिका-पर्यन्त के दलिक, जिन्हें उदयावलिका-प्राप्त या उदीर्णदलिक कहते हैं, उनका तो प्रदेशोदय व विपाकोदयद्वारां क्षय (अभाव) होता रहता है; और जो दलिक, विवक्षित वर्तमान समय से श्रावलिका तक में उदय पाने योग्य नहीं हैं---जिन्हें उदयावलिका बहिर्भूत या अनुदीर्ण दलिक कहते हैंउनका उपशम (विपाकोदय की योग्यता का अभाव या तीव्र रस से मन्द रस में परिणमन) हो जाता है, जिससे वे दलिक, अपनी उदयावलिका प्राप्त होने पर, प्रदेशोदय या मन्द विपाकोदय द्वारा क्षीण हो जाते हैं अर्थात् आत्मा पर अपना फल प्रकट नहीं कर सकते या कम प्रकट करते हैं । ___ इस प्रकार श्रावलिका पर्यन्त के उदय-प्राप्त कर्मदलिकों का प्रदेशोदय व विपाकोदय द्वारा क्षय और श्रावलिका के बाद के उदय पाने योग्य कर्मदलिकों की विपाकोदय संबन्धिनी योग्यता का अभाव या तीव्र रस का मन्द रस में परिणमन होते रहने से कर्म का क्षयोपशम कहलाता है। क्षयोपशम-योग्य कर्म-- क्षयोपशम, सब कर्मों का नहीं होता: सिर्फ घातिकर्मों का होता है। घातिकर्म के देशधाति और सर्वघाति, ये दो भेद हैं। दोनों के क्षयोपशम में कुछ विभिन्नता है। (क) जब देशघातिकर्म का क्षयोपशम प्रवृत्त होता है, तब उसके मंद रसयुक्त कुछ दलिकों का विपाकोदय, साथ ही रहता है। विपाकोदय-प्रास दलिक, अल्प रस-युक्त होने से स्वावार्य गुण का घात नहीं कर सकते, इससे यह सिद्धांत माना गया है कि देशघातिकर्म के क्षयोपशम के समय, विपाकोदय विरुद्ध नहीं है, अर्थात् वह क्षयोपशम के कार्य को स्वावार्य गुण के विकास को-रोक नहीं. सकता । परन्तु यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि देशघातिकर्म के विपाकोदयमिश्रित क्षयोपशम के समय, उसका सर्वघाति-रस-युक्त कोई भी दलिक, उदयमान नहीं होता। इससे यह सिद्धांत मान लिया गया है कि जब, सर्वघाति रस, शुद्ध. अध्यवसाय से देशघातिरूप में परिणत हो जाता है, तभी अर्थात् देशघाति-स्पर्धक के ही विपाकोदय-काल में क्षयोपशम अवश्य प्रवृत्त होता है। घातिकर्म की पच्चीस प्रकृतियाँ देशघातिनी हैं, जिनमें से मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण और पाँच अन्तराय, इन आठ प्रकृतियों का क्षयोपशम तो सदा से ही प्रवृत्त है; क्योंकि आवार्य मतिज्ञान आदि पर्याय, अनादि काल से क्षायोपशमिकरूप में रहते ही हैं। इसलिए यह मानना चाहिए. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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