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क्षयोपशम
कि उक्त आठ प्रकृतियों के देशघाति- रसस्पर्धक का ही उदय होता है, रसस्पर्धक का कभी नहीं ।
अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण, इन चार प्रकृतियों का क्षयोपशम कादाचित्क (नियत) है, अर्थात् जब उनके सर्वघाति-रसस्पर्धक, देशघातिरूप में परिणत हो जाते हैं; तभी उनका क्षयोपशम होता है और जब सर्वघाति- रसस्पर्धक उदयमान होते हैं, तब अवधिज्ञान आदि का घात ही होता है। उक्त चार प्रकृतियों का क्षयोपशम भी देशघातिरसस्पर्धक के विपाकोदय से मिश्रित ही समझना चाहिए ।
३१५.
सर्वघाति
उक्त बारह के सिवाय शेष तेरह (चार संज्वलन और नौ नोकषाय) प्रकृतियाँ जो मोहनीय की हैं, वे ध्रुवोदयिनी हैं । इसलिए जब उनका क्षयोपशम, प्रदेशोदयमात्र से युक्त होता है, तब तो वे स्वावार्य गुण का लेश भी घात नहीं करतीं और देशघातिनी ही मानी जाती हैं; पर जब उनका क्षयोपशम विपाकोदय से मिश्रित होता है, तब वे स्वावार्य गुण का कुछ घात करतीं हैं और देशघातिनी कहलाती हैं ।
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(ख) घातिकर्म की बीस प्रकृतियाँ सर्वघातिनी हैं । इनमें में केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण, इन दो का तो क्षयोपशम होता ही नहीं; क्योंकि उनके दलिक कभी देशघाति- रसयुक्त बनते ही नहीं और न उनका विपाकोदय ही रोका जा सकता है । शेष-अठारह प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जिनका क्षयोपशम हो सकता है; परंतु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि देशघातिनी प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय, , जैसे विपाकोदय होता है, वैसे इन अठारह सर्वघातिनी प्रकृतियों के दक्षयोपशम के समय नहीं होता, अर्थात् इन अठारह प्रकृतियों का क्षयोपशम, तभी सम्भव है, जब उनका प्रदेशोदय ही हो। इसलिए यह सिद्धांत माना है कि 'विपाकोदयवती प्रकृतियों का क्षयोपशम, यदि होता है तो देशघातिनी ही का, सर्वघातिनी का नहीं' |
अत एव उक्त अठारह प्रकृतियाँ, विपाकोदय के निरोध के योग्य मानी जाती है; क्योंकि उनके आवार्य गुणों का क्षायोपशमिक स्वरूप में व्यक्त होना माना गया है, जो विपाकोदय के निरोध के सिवाय घट नहीं सकता ।
(२) उपशम - क्षयोपशम की व्याख्या में, उपशम शब्द का जो अर्थ किया गया है, उससे पशमिक के उपशम शब्द का अर्थ कुछ उदार है । अर्थात् क्षयोपशम के उपशम शब्द का अर्थ सिर्फ विपाकोदयसम्बन्धिनी योग्यता का अभाव या तीव्र रस का मंद रस में परिणमन होना है; पर औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ प्रदेशोदय और विपाकोदय दोनों का अभाव है; क्योंकि क्षयोपशम
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