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________________ सम्यक्त्व ३१३ अ० २, सू० ३ के पहले और दूसरे राजवार्तिक में तथा सू० ४ और ५ के सातवें राजवार्तिक में है। (३)ौपशमिकसम्यक्त्व के समय, दर्शनमोहनीय का किसी प्रकार का उदय नहीं होता; पर क्षायोपशमिकसम्यक्त्व के समय, सम्यक्त्वमोहनीय का विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय का प्रदेशोदय होता है। इसी भिन्नता के कारण शास्त्र में औपशमिकसम्यक्त्व को, 'भावसम्यक्त्व' और क्षायोपशमिकसम्यक्त्व को, 'द्रव्यसम्यक्त्व' कहा है । इन दोनों सम्यक्त्वों से क्षायिकसम्यक्त्व विशिष्ट है; क्योंकि वह स्थायी है और ये दोनों अस्थायी हैं । (४) यह शङ्का होती है कि मोहनीयकर्म घातिकर्म है । वह सम्यक्त्व और चारित्रपर्याय का घात करता है, इसलिए सम्यक्त्वमोहनीय के विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय के प्रदेशोदय के समय, सम्यक्त्व-परिणाम व्यक्त कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि सम्यक्त्वमोहनीय, मोहनीयकर्म है सही, पर उसके दलिक विशुद्ध होते हैं; क्योंकि शुद्ध अध्यवसाय से जब मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के दलिकोंका सर्वघाती रस नष्ट हो जाता है, तब वेही एक-स्थान रसवाले और द्विस्थान अतिमन्द रसवाले दलिक 'सम्यक्त्वमोहनीय' कहलाते हैं। जैसे-काँच आदि पारदर्शक वस्तुएँ नेत्र के दर्शन कार्य में रुकावट नहीं डालती; वैसे ही मिथ्यात्वमोहनीय के शुद्ध दलिकों का विपाकोदय सम्यक्त्व-परिणाम के आविर्भाव में प्रतिबन्ध नहीं करता। अब रहा मिथ्यात्व का प्रदेशोदय, सो वह भी, सम्यक्त्वपरिमाण का प्रतिबन्धक नहीं होता; क्योंकि नीरस दलिकोंका ही प्रदेशोदय होता है। जो दलिक, मन्द रसवाले हैं, उनका विपाकोदय भी जब गुण का घात नहीं करता, तब नीरस दलिकों के प्रदेशोदय से गुण के घात होने की सम्भावना ही नहीं की जा सकती। देखिए, पञ्चसंग्रह-द्वार १, १५वीं गाथा की टीका में ग्यारहवें गुणस्थान की व्याख्या । (५) क्षयोपशम-जन्य पर्याय 'क्षायोपशमिक' और उपशम-जन्य पर्याय 'औपशमिक' कहलाता है। इसलिए किसी भी क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव का यथार्थ ज्ञान करने के लिए पहले क्षयोपशम और उपशम का ही स्वरूप जान लेना आवश्यक है । अतः इनका स्वरूप शास्त्रीय प्रक्रिया के अनुसार लिखा जाता है-- (१) क्षयोपशम शब्द में दो पद हैं--क्षय तथा उपशम । 'क्षयोपशम' शब्द का मतलब, कर्म के क्षय और उपशम दोनों से है। क्षय का मतलब, अात्मा. से कर्म का विशिष्ट संबन्ध छट जाना और उपशम का मतलब कर्म का अपने स्वरूप में आत्मा के साथ संलग्न रहकर भी उस पर असर न डालना है। यह तो हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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