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________________ और पंडितोंका धर्म सिर्फ ढकोसला है-धोखेकी टट्टी है । इस तरह धर्मोपदेशक और तर्कवादी बुद्धिमान् वर्गके बीच प्रतिक्षण अन्तर और विरोध बढ़ता ही जाता है। उस दशामें धर्मका अाधार विवेकशून्य श्रद्धा, अज्ञान या वहम ही रह जाता है और बुद्धि एवं बजम्य गुणोंके साथ धर्मका एक प्रकारसे विरोध दिखाई देता है। यूरोपका इतिहास बताता है कि विज्ञानका जन्म होते ही उसका सबसे पहला प्रतिरोध ईसाई धर्मकी श्रोरसे हुअा। अन्तमें इस प्रतिरोधसे धर्मका ही सर्वथा नाश देखकर उसके उपदेशकोंने विज्ञानके मार्गमें प्रतिपक्षी भावसे याना ही छोड़ दिया। उन्होंने अपना क्षेत्र ऐसा बना लिया कि वे वैज्ञानिकोंके मार्गमें बिना बाधा डाले ही कुछ धर्मकार्य कर सकें। उधर वैज्ञानिकोंका भी क्षेत्र ऐसा निष्कण्टक हो गया कि जिससे वे विज्ञानका विकास और सम्वर्धन निर्बाध रूपसे करते रहें । इसका एक सुन्दर और महत्त्वका परिणाम यह हुआ कि सामाजिक और अन्तमें राजकीय क्षेत्रसे भी धर्मका डेरा उठ गया और फलतः वहाँकी सामाजिक और राजकीय संस्थाएं अपने ही गुण-दोषोंपर बनने-बिगड़ने लगीं। इस्लाम और हिन्दू धर्मकी सभी शाखाओंकी दशा इसके विपरीत है। इस्लामी दीन और धर्मों की अपेक्षा बुद्धि और तर्कवादसे अधिक घबड़ाता है । शायद इसीलिए, वह धर्म अभी तक किसी अन्यतम महात्माको पैदा नहीं कर सका और स्वयं स्वतन्त्रताके लिए उत्पन्न होकर भी उसने अपने अनुयायियोंको अनेक सामाजिक तथा राजकीय बन्धनोंसे जकड़ दिया । हिन्दू धर्मकी शाखाअोंका भी यही हाल है। वैदिक हो, बौद्ध हो या जैन, सभी धर्म स्वतन्त्रता का दावा तो बहुत करते हैं, फिर भी उनके अनुयायी जीवनके हरेक क्षेत्रमें अधिक से अधिक गुलाम हैं। यह स्थिति अब विचारकोंके दिल में खटकने लगी है। वे सोचते हैं कि जब तक बुद्धि, विचार और तर्कके साथ धर्मका विरोध समझा जाएगा तब तक उस धर्मसे किसीका भला नहीं हो सकता । यही विचार आजकल के युवकोंकी मानसिक क्रान्तिका एक प्रधान लक्षण है। राजनीति, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास और विज्ञान श्रादिका अभ्यास तथा चिन्तन इतना अधिक होने लगा है कि उससे युवकोंके विचारमें स्वतन्त्रता तथा उनके प्रकाशनमें निर्भयता दिखाई देने लगी है। इधर धर्मगुरु और धर्मपंडितोंका उन नवीन विद्याअोंसे परिचय नहीं होता, इस कारण वे अपने पुराने, वहमी, संकुचित और भीरु खयालोंमें ही विचरते रहते हैं । ज्यों ही युवकवर्ग अपने स्वतन्त्र विचार प्रकट करने लगता है त्यों ही धर्मजीवी महात्मा घबड़ाने और कहने लगते हैं कि विद्या और विचारने ही तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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