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________________ धर्मका नाश शुरू किया है। जैनसमाजकी ऐसी ही एक ताजी घटना है। अहमदाबादमें एक ग्रेज्युएट वकीलने जो मध्यश्रेणीके निर्भय विचारक हैं, धर्मके व्यावहारिक स्वरूपपर कुछ विचार प्रकट किये कि चारों ओरसे विचारके कत्रस्तानोंसे धर्म-गुरुओंकी श्रात्माएँ जाग पड़ीं। हलचल होने लग गई कि ऐसा विचार प्रकट क्यों किया गया और उस विचारकको जैनधर्मोचित सजा क्या और कितनी दी जाए ? सजा ऐसी हो कि हिंसात्मक भी न समझी जाय और हिंसास्मक सजासे अधिक कठोर भी सिद्ध हो, जिससे आगे कोई स्वतन्त्र और निर्भय भावसे धार्मिक विषयोंकी समीक्षा न करे । हम जब जैनसमाजकी ऐसी ही पुरानी घटनाओं तथा आधुनिक घटनाअोंपर विचार करते हैं तब हमें एक ही बात मालूम होती है और वह यह कि लोगोंके खयालमें धर्म और विचारका विरोध ही अँच गया है । इस जगह हमें थोड़ी गहराई से विचार-विश्लेषण करना होगा। हम उन धर्मधुरंधरोंसे पूछना चाहते हैं कि क्या वे लोग तात्त्विक और व्यावहारिक धर्मके स्वरूपको अभिन्न या एक ही समझते हैं ? और क्या व्यावहारिक स्वरूप या बंधारणको वे अपरिवर्तनीय साबित कर सकते हैं ? व्यावहारिक धर्मका बंधारण और स्वरूप अगर बदलता रहता है और बदलना चाहिए तो इस परिवर्तनके विषयमें यदि कोई अभ्यासी और चिन्तनशील विचारक केवल अपना विचार प्रदर्शित करे, तो इसमें उनका क्या बिगड़ता है ? सत्य, अहिंसा, संतोष आदि तात्त्विक धर्मका तो कोई विचारक अनादर करता ही नहीं बल्कि वह तो उस तात्त्विक धर्मकी पुष्टि, विकास एवं उपयोगिताका स्वयं कायल होता है । वह जो कुछ आलोचना करता है, जो कुछ हेर-फेर या तोड़-फोड़की आवश्यकता बताता है वह तो धर्मके व्यावहारिक स्वरूपके संबन्धमें है और उसका उद्दश्य धर्मकी विशेष उपयोगिता एवं प्रतिष्ठा बढ़ाना है । ऐसी स्थितिमें उसपर धर्म-विनाशका आरोप लगाना या उनका विरोध करना केवल यही साबित करना है कि या तो धर्मधुरन्धर धर्मके वास्तविक स्वरूप और इतिहासको नहीं समझते या समझते हुए भी ऐसा पामर प्रयत्न करने में उनकी कोई परिस्थिति कारणभूत है। श्राम तौरसे अनुयायी गृहस्थ वर्ग ही नहीं बल्कि साधु वर्गका बहुत बड़ा भाग भी किसी वस्तुका समुचित विश्लेषण करने और उसपर समतौलपन रखनेमें नितान्त असमर्थ है। इस स्थितिका फायदा उठाकर संकुचितमना साधु और उनके अनुयायी गृहस्थ भी, एक स्वरसे कहने लगते हैं कि ऐसा कहकर अमुकने धर्मनाश कर दिया। बेचारे भोले-भाले लोग इस बातसे अज्ञानके और भी गहरे गढ़े में जा गिरते हैं। वास्तवमें चाहिए तो यह कि कोई विचारक नए दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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