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________________ तिलक, मूर्तिपूजन, यात्रा, गुरुसत्कार, देहदमनादि बाह्य व्यवहार दूसरे रूपमें । सात्त्विक धर्मका इच्छुक मनुष्य जब अहिंसाका महत्त्व गाता हुश्रा भी पूर्वसंस्कारवश कभी-कभी उसी धर्मकी रक्षाके लिए हिंसा, पारम्परिक पक्षपात तथा विरोधीपर प्रहार करना भी आवश्यक बतलाता है, सत्यका हिमायती भी ऐन मौके पर जब सत्यकी रक्षाके लिए असत्यकी शरण लेता है, सबको सन्तुष्ट रहनेका उपदेश देनेवाला भी जब धर्म-समर्थनके लिए परिग्रहकी आवश्यकता बतलाता है, तब बुद्धिमानोंके दिलमें प्रश्न होता है कि अधर्मस्वरूप समझे जाने वाले हिंसा आदि दोषोंसे जीवन-शुद्धि-रूप धर्मकी रक्षा या पुष्टि कैसे हो सकती है ? फिर वही बुद्धिशाली वर्ग अपनी शङ्काको उन विपरीतगामी गुरुत्रों या पण्डितोंके सामने रखता है। इसी तरह जब बुद्धिमान् वर्ग देखता है कि जीवन-शुद्धिका विचार किये बिना ही धर्मगुरु और पण्डित बाह्य क्रियाकाण्डोंको ही धर्म कहकर उनके ऊपर ऐकान्तिक भार दे रहे हैं और उन क्रियाकाण्डों एवं नियत भाषा तथा वेशके बिना धर्मका चला जाना, नष्ट हो जाना, बतलाते हैं तब वह अपनी शङ्का उन धर्म-गुरुओं, पण्डितों आदिके सामने रखता है कि वे लोग जिन अस्थायी और परस्पर असंगत बाह्य व्यवहारोंपर धर्मके नामसे पूरा भार देते हैं उनका सच्चे धर्मसे क्या और कहाँतक संबन्ध है ? प्रायः देखा जाता है कि जीवन-शुद्धि न होनेपर, बल्कि अशुद्ध जीवन होनेपर भी, ऐसे बाह्य-व्यवहार, अज्ञान, वहम, स्वार्थ एवं भोलेपन के कारण मनुष्यको धर्मात्मा समझ लिया जाता है। ऐसे बाह्य-व्यवहारोंके कम होते हुए या दूसरे प्रकारके बाह्य-व्यवहार होनेपर भी सात्त्विक धर्मका होना सम्भव हो सकता है । ऐसे प्रश्नोंके सुनते ही उन धर्म-गुरुत्रों और धर्म पंडितोंके मनमें एक तरहकी भीति पैदा हो जाती है । वे समझने लगते हैं कि ये प्रश्न करनेवाले वास्तवमें तात्त्विक धर्मवाले तो हैं नहीं, केवल निरी तर्कशक्तिसे हम लोगोंके द्वारा धर्मरूपसे मनाये जानेवाले व्यवहारोंको अधर्म बतलाते हैं। ऐसी दशामें धर्मका व्यावहारिक बाह्यरूप भी कैसे टिक सकेगा ? इन धर्म-गुरुत्रोंकी दृष्टिमें ये लोग अवश्य ही धर्म-द्रोही या धर्म-विरोधी हैं। क्योंकि वे ऐसी स्थितिके प्रेरक हैं जिसमें न तो जीवन-शुद्धिरूपी असली धर्म ही रहेगा और न झूठा सच्चा व्यावहारिक धर्म ही। धर्मगुरुओं और धर्म-पंडितोंके उक्त भय और तजन्य उलटी विचारणामेंसे एक प्रकारका द्वन्द्व शुरू होता है । वे सदा स्थायी जीवनशुद्धिरूप तात्त्विक धर्मको पूरे विश्लेषणके साथ समझानेके बदले बाह्य-व्यवहारोंको त्रिकालाबाधित कहकर उनके ऊपर यहाँतक जोर देते हैं कि जिससे बुद्धिमान वर्ग उनकी दलीलोंसे ऊबकर, असन्तुष्ट होकर यही कह बैठता है कि गुरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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