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जैन धर्म और दर्शन है जो अपनी शक्ति का यथोचित प्रयोग कर के उस आध्यात्मिक युद्ध में राग-द्वेष पर जयलाभ कर ही लेता है। किसी भी मानसिक विकार की प्रतिद्वन्द्विता में इन तीनों अवस्थात्रों का अर्थात् कभी हार खाकर पीछे गिरने का, कभी प्रतिस्पर्धा में डटे रहने का और जयलाभ करने का अनुभव हमे अक्सर नित्य प्रति हुआ करता है । यही संघर्ष कहलाता है। संघर्ष विकास का कारण है। चाहे विद्या, चाहे धन, चाहे कीर्ति, कोई भी लौकिक वस्तु इष्ट हो, उसको प्राप्त करते समय भी अचानक अनेक विघ्न उपस्थित होते हैं और उनकी प्रतिद्वन्द्विता में उक्त प्रकार की तीनों अवस्थाओं का अनुभव प्रायः सबको होता रहता है। कोई विद्यार्थी, कोई धनार्थी या कोई कीर्तिकाङ्क्षी जब अपने इष्ट के लिए प्रयत्न करता है तब या तो वह बीच में अनेक कठिनाइयों को देखकर प्रयत्न को छोड़ ही देता है या कठिनाइयों को पारकर इष्ट-प्राप्ति के मार्ग की ओर असर होता है । जो अग्रसर होता है, वह बड़ा विद्वान् , बड़ा धनवान् या बड़ा कीर्तिशाली बन जाता है। जो कठिनाइयों से डरकर पीछे भागता है, वह पामर, अज्ञान, निर्धन या कीर्तिहीन बना रहता है। और जो न कठिनाइयों को जीत सकता है और न उनसे हार मानकर पीछे भागता है, वह साधारण स्थिति में ही पड़ा रहकर कोई ध्यान खींचने योग्य उत्कर्ष-लाभ नहीं करता ।
इस भाव को समझाने के लिए शास्त्र में एक यह दृष्टान्त दिया गया है कि १ जह वा तिन्नि मणुस्सा, जंतडविपहं सहावगमणेणं ।
वेलाइक्कमभीया, तुरंति पत्ता य दो चोरा ॥ १२११ ।। दटुं मग्गतडत्थे ते एगो मग्गो पडिनियत्तो । बितिसो गहिरो तइओ, समइक्कंतुं पुरं पत्तो ॥ १२१२ ।। अडवी भवो मणूसा, जीवा कम्मट्टिई पहो दीहो । गंठी य भयहाणं, रागद्दोसा य दो चोरा । १२१३ ।। भग्गो ठिइपरिवुड्ढी, गहिरो पुण गंठिो गो तइयो। सम्मत्तपुरं एवं जोएज्जा तिएिण करणाणि ।। १२१४ ॥
-विशेषावश्यक भाष्य । यथा जनास्त्रयः केऽपि, महापुरं यियासः ।। प्राप्ताः क्वचन कान्तारे, स्थानं चौरैः भयंकरम् ॥ ६१६ ।। तत्र द्रुतं द्रुतं यान्तो, ददृशुस्तकरद्वयम् ।। तदृष्ट्वा त्वरितं पश्चादेको भीतः पलायितः ॥ ६२० ॥ गृहीतश्चापरस्ताभ्यामन्यस्त्ववगणय्य तौ। भयस्थानमतिक्रम्य, पुरं प्राप पराक्रमी ।। ६२१ ।।
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