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गुणस्थान का विशेष स्वरूप से वञ्चित रहता है। इसी भूमिका को जैनशास्त्र में 'बहिरात्मभाव' किंवा 'मिथ्यादर्शन' कहा है। इस भूमिका में जितने श्रात्मा वर्तमान होते हैं, उन सभी की आध्यात्मिक स्थिति एक सी नहीं होती। अर्थात् सब के ऊपर मोह की सामान्यतः दोनों शक्तियों का आधिपत्य होने पर भी उसमें थोड़ा-बहुत तरतम भाव अवश्य होता है । किसी पर मोह का प्रभाव गाढ़तम, किसी पर गाढ़तर और किसी पर उससे भी कम होता है। विकास करना यह प्रायः आत्मा का स्वभाव है। इसलिए जानते या अनजानते, जब उस पर मोह का प्रभाव कम होने लगता है, तब वह कुछ विकास की ओर अग्रसर हो जाता है और तीव्रतम रागद्वेष को कुछ मन्द करता हुआ मोह की प्रथम शक्ति को छिन्न-भिन्न करने योग्य आत्मबल प्रकट कर लेता है । इसी स्थिति को जैनशास्त्र में 'ग्रन्थिभेद' १ कहा है। __ग्रंथिभेद का कार्य बड़ा ही विषम है। राग-द्वेष का तीव्रतम विष-ग्रंथि एक बार शिथिल व छिन्न-भिन्न हो जाए तो फिर बेड़ा पार ही समझिए क्योंकि इसके बाद मोह की प्रधान शक्ति दर्शन मोह को शिथिल होने में देरी नहीं लगती और दर्शनमोह शिथिल हुआ कि चारित्रमोह की शिथिलता का मार्ग आप ही आप खुल जाता है। एक तरफ राग-द्वेष अपने पूर्ण बल का प्रयोग करते हैं और दूसरी तरफ विकासोन्मुख अात्मा भी उनके प्रभाव को कम करने के लिए अपने वीर्य बल का प्रयोग करता है। इस आध्यात्मिक युद्ध में यानी मानसिक विकार
और आत्मा की प्रतिद्वन्द्विता में कभी एक तो कभी दूसरा जयलाभ करता है। अनेक आत्मा ऐसे भी होते हैं जो करीब-करीब ग्रंथिभेद करने लायक बल प्रकट करके भी अन्त में राग-द्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर व उनसे हार खाकर अपनी मूल स्थिति में आ जाते हैं और अनेक बार प्रयत्न करने पर भी राग-द्वेष पर जयलाभ नहीं करते। अनेक आत्मा ऐसे भी होते हैं, जो न तो हार खाकर पीछे गिरते हैं और न जयलाभ कर पाते हैं, किन्तु वे चिरकाल तक उस आध्यात्मिक युद्ध के मैदान में ही पड़े रहते हैं। कोई-कोई आत्मा ऐसा भी होता
१ गंठित्ति सुदुम्भेश्रो कक्खडघणरूढगूढगंठि व्व।
जीवस्स कम्मजणिश्रो घणरागद्दोसपरिणामो ॥ ११६५ ॥ भिन्नम्मि तम्मि लाभो सम्मत्ताईण मोक्खहेऊणं । : सो य दुल्लभो परिस्समचित्तविघायाइविग्घेहिं ॥ ११६६ ॥ . सो तत्थ परिस्सम्मई घोरमहासमरनिग्गयाइ व्व । विज्जा य सिद्धिकाले जह (बहुविग्घा तथा सोवि ॥ ११६७॥ .
...--विशेषावश्यक भाष्य ।
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