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कर्मग्रन्थों के कर्ता
२४३ श्री देवेन्द्रसूरि तथा श्री विजयचन्द्रसूरि दोनों को प्राचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया था, तथापि गुरु के प्रारम्भ किये हुए क्रियोद्धार के दुर्धर कार्य को श्री देवेन्द्रसूरि ही सम्हाल सके । तत्कालीन शिथिलाचार्यों का प्रभाव उन पर कुछ भी नहीं पड़ा। इससे उलटा श्री विजयचन्द्रसूरि, विद्वान् होने पर भी प्रमाद के चंगुल में फँस गए और शिथिलाचारी हुए। अपने सहचारी को शिथिल देख, समझाने पर भी उनके न समझने से अन्त में श्रीदेवेन्द्रसूरि ने अपनी क्रियारुचि के कारण उनसे अलग होना पसंद किया। इससे यह बात साफ प्रमाणित होती है कि वे बड़े ढ़ मन के और गुरुभक्त थे। उनका हृदय ऐसा संस्कारी था कि उसमें गुण का प्रतिबिम्ब तो शीघ्र पड़ जाता था पर दोष का नहीं; क्योंकि दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जो श्वेताम्बर तथा दिगम्बर संप्रदाय के अनेक असाधारण विद्वान् हुए, उनकी विदता, ग्रन्थनिर्माणपटुता और चारित्रप्रियता आदि गुणों का प्रभाव तो श्री देवेन्द्रसरि के हृदय पर पड़ा, परन्तु उस समय जो अनेक शिथिलाचारी थे, उनका असर इन पर कुछ भी नहीं पड़ा।
श्री देवेन्द्रसूरि के शुद्धक्रियापक्षपाती होने से अनेक मुमुक्षु, जो कल्याणार्थी व संविग्न-पाक्षिक थे वे आकर उनसे मिल गए थे। इस प्रकार उन्होंने ज्ञान के • समान चारित्र को भी स्थिर रखने व उन्नत करने में अपनी शक्ति का उपयोग किया था ।
(४) गुरु-श्री देवेन्द्रसूरि के गुरु थे श्रीजगच्चन्द्र सूरि जिन्होंने श्री देवभद्र उपाध्याय की मदद से क्रियोद्धार का कार्य प्रारम्भ किया था। इस कार्य में उन्होंने अपनी असाधारण त्यागवृत्ति दिखाकर औरों के लिए आदर्श उपस्थित किया था। उन्होंने आजन्म आयंबिल व्रत का नियम लेकर घी, दूध आदि के लिए जैन-शास्त्र में व्यवहार किये गए विकृति शब्द को यथार्थ सिद्ध किया। इसी कठिन तपस्या के कारण बड़गच्छ का ‘तपागच्छ' नाम, हुआ और वे तपागच्छ के आदि सूत्रधार कहलाए । मन्त्रीश्वर वस्तुपाल ने गच्छ परिवर्तन के
१ देखो गुर्वावली पद्य १२२ से उनका जीवनवृत्त ।
२ उदाहरणार्थ-श्री गर्गऋषि, जो दसवीं शताब्दी में हुए, उनके कर्मविपाक का संक्षेप इन्होंने किया । श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, जो ग्यारहवीं शताब्दी में हुए, उनके रचित गोम्मटसार से श्रुतज्ञान के पदश्रुतादि बीस भेद पहले कम ग्रन्थ में दाखिल किये जो श्वेताम्बरीय अन्य ग्रंथों में अब तक देखने में नहीं आए। श्री मलयगिरिसूरि, जो बारहवीं शताब्दी में हुए, उनके ग्रंथ के तो वाक्य के वाक्य इनकी बनाई टीका आदि में दृष्टिगोचर होते हैं।
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