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________________ २४४ जैन धर्म और दर्शन समय श्री जगच्चन्द्रसूरीश्वर की बहुत अर्चापूजा की। श्री जगच्चन्द्रसूरि तपस्वी ही न थे किन्तु वे प्रतिभाशाली भी थे, क्योंकि गुर्वावली में यह वर्णन है कि उन्होंने चित्तौड़ की राजधानी अघाट (अहड़) नगर में बत्तीस दिगम्बर-वादियों के साथ वाद किया था और उसमें वे हीरे के समान अभेद्य रहे थे। इस कारण चित्तौड़नरेश की ओर से उनको 'हीरला' की पदवी । मिली थी। उनकी कठिन तपस्या, शुद्ध बुद्धि और निरवद्य चारित्र के लिए यही प्रमाण बस है कि उनके स्थापित किये हुए तपागच्छ के पाट पर आज तक २ ऐसे विद्वान्, क्रियातत्पर और शासन प्रभावक प्राचार्य बराबर होते आए हैं कि जिनके सामने बादशाहों ने, हिन्दू नरपतियों ने और बड़े-बड़े विद्वानों ने सिर झुकाया है। ५) परिवार-श्री देवेन्द्रसूरि का परिवार कितना बड़ा था इसका स्पष्ट खुलासा तो कहीं देखने में नहीं आया, पर इतना लिखा मिलता है कि अनेक संविन मुनि, उनके आश्रित थे। गुर्वावली में उनके दो शिष्य---श्री विद्यानन्द और श्री धर्मकीर्ति का उल्लेख है । ये दोनों भाई थे। 'विद्यानन्द' नाम, सूरिपद के पीछे का है। इन्होंने 'विद्यानन्द' नाम का व्याकरण बनाया है। धर्मकीर्ति उपाध्याय, जो सूरिपद लेने के बाद 'धर्मघोष' नाम से प्रसिद्ध हुए, उन्होंने भी कुछ ग्रंथ रचे हैं। ये दोनों शिष्य, अन्य शास्त्रों के अतिरिक्त जैन-शास्त्र के अच्छे विद्वान् थे । इसका प्रमाण, उनके गुरु श्री देवेन्द्रसूरि की कमग्रन्थ की वृत्ति के अन्तिम पद्य से मिलता है। उन्होंने लिखा है कि 'मेरी बनाई हुई इस टीका को श्री विद्यानन्द और श्री धर्मकीर्ति, दोनों विद्वानों ने शोधा है।' इन दोनों का विस्तृत वृत्तान्त जैनतत्त्वादर्श के बारहवें परिच्छेद में दिया है। (६) ग्रन्थ-श्री देवेन्द्रसूरि के कुछ ग्रंथ जिनका हाल मालूम हुआ है उनके नाम नीचे लिखे जाते हैं १ श्राद्ध दिनकृत्य सूत्रवृत्ति, २ सटीक पाँच नवीन कर्मग्रंथ, ३ सिद्धपंचाशिका सूत्रवृत्ति, ४ धर्मरत्नवृत्ति, ५ सुदर्शन चरित्र, ६ चैत्यवंदनादि भाष्यत्रय, ७ वंदारुवृत्ति, ८ सिरिउसयुद्धमाण प्रमुख स्तवन, ६ सिद्धदण्डिका, १० सारवृत्तिदशा। इनमें से प्रायः बहुत से ग्रन्थ जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर, आत्मानन्द सभा भावनगर, देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड सूरत की ओर से छप चुके हैं । ई० १६२१] [कविपाक की प्रस्तावना १ यह सब जानने के लिए देखो गुर्वावली पद्य ८८ से अागे । - २ यथा श्री हीरविजयसूरि, श्रीमद् न्यायविशारद महामहोपाध्याय यशोविजयगणि, श्रीमद् न्यायाम्भोनिधि विजयानन्दसूरि, आदि । ३ देखो, पद्य १५३ में आगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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