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________________ २४२ जैनधर्म और दर्शन है कि वे विक्रम की १३ वीं शताब्दी के अन्त में तथा चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अपने अस्तित्व से भारतवर्ष की, और खासकर गुजरात तथा मालवा की शोभा बढ़ा रहे थे। (२) जन्मभूमि, जाति आदि-श्री देवेन्द्रसूरि का जन्म किस देश में, किस जाति और किस परिवार में हुआ इसका कोई प्रमाण अब तक नहीं मिला। गुर्वावली में उनके जीवन का वृत्तान्त है, पर वह बहुत संक्षिप्त है। उसमें सूरिपद ग्रहण करने के बाद की बातों का उल्लेख है, अन्य बातों का नहीं। इसलिए उसके आधार पर उनके जीवन के संबन्ध में जहाँ कहीं उल्लेख हुआ है वह अधूरा ही है । तथापि गुजरात और मालवा में उनका अधिक विहार, इस अनुमान की सूचना कर सकता है कि वे गुजरात या मालवा में से किसी देश में जन्मे होंगे। उनकी जाति और माता-पिता के संबन्ध में तो साधन के अभाव से किसी प्रकार के अनुमान को अवकाश ही नहीं है। (३) विद्वत्ता और चारित्रतत्परता- श्री देवेन्द्र सूरिजी जैनशास्त्र के पूरे विद्वान् थे इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं, क्योंकि इस बात की गवाही उनके ग्रन्थ ही दे रहे हैं। अब तक उनका बनाया हुआ ऐसा कोई ग्रन्थ देखने में नहीं श्राया जिसमें कि उन्होंने स्वतन्त्र भाव से षड्दर्शन पर अपने विचार प्रकट किये हों; परन्तु गुर्वावलो के वर्णन से पता चलता है कि वे षड्दर्शन के मार्मिक विद्वान् थे और इसी से मन्त्रीश्वर वस्तुपाल तथा अन्य-अन्य विद्वान् उनके व्याख्यान में पाया करते थे । यह कोई नियम नहीं है कि जो जिस विषय का पण्डित हो वह उस पर ग्रन्थ लिखे ही, कई कारणों से ऐसा नहीं भी हो सकता। परन्तु श्री देवेन्द्रसूरि का जैनागमविषयक ज्ञान हृदयस्पर्शी था यह बात असन्दिग्ध है। उन्होंने पाँच कर्मग्रन्थ-जो नवीन कर्मग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं (और जिनमें से यह पहला है) सटीक रचे हैं । टीका इतनी विशद और सप्रमाण है कि उसे देखने के बाद प्राचीन कर्मग्रन्थ या उसकी टीकाएँ देखने की जिज्ञासा एक तरह से शान्त हो जाती है। उनके संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में रचे हुए अनेक ग्रन्थ इस बात की स्पष्ट सूचना करते हैं कि वे संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के प्रखर पण्डित थे। श्री देवेन्द्रसूरि केवल विद्वान् ही न थे किन्तु वे चारित्रधर्म में बड़े दृढ़ थे। इसके प्रमाण में इतना ही कहना पर्याप्त है कि उस समय क्रियाशिथिलता को देखकर श्री जगच्चन्द्रसरि ने बड़े पुरुषार्थ और निःसीम त्याग से, जो क्रियोद्धार किया था उसका निर्वाह श्री देवेन्द्रसूरि ने ही किया । यद्यपि श्री जगच्चन्द्रसूरि ने १ देखो श्लोक १०७ से आगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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