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________________ २०८ जैन धर्म और दर्शन । है, वह सब इसी त्रिपुरुषार्थवादी दल के मन्तव्य का सूचक है इसका मन्तव्य संक्षेप में यह है कि धर्म-शुभकर्म का फल स्वर्ग और धर्म - शुभकर्म का फल नरक आदि है । धर्माधर्म ही पुण्य-पाप तथा दृष्ट कहलाते हैं और उन्हीं के द्वारा जन्म-जन्मान्तर की चक्रप्रवृत्ति चला करती है, जिसका उच्छेद शक्य नहीं है । शक्य इतना ही है कि अगर अच्छा लोक और अधिक सुख पाना हो तो धर्म ही कर्तव्य है । इस मत के अनुसार अधर्म या पाप तो हेय हैं, पर धर्म या पुण्य हेय नहीं। यह दल सामाजिक व्यवस्था का समर्थक था, अतएव वह समाजमान्य शिष्ट एवं विहित चरणों से धर्म की उत्पत्ति बतलाकर तथा निन्द्य चरणों से धर्म की उत्पत्ति बतलाकर सब तरह की सामाजिक सुव्यवस्था का ही संकेत करता था वही दल ब्राह्मणमार्ग, मीमांसक और कर्मकाण्डी नाम से प्रसिद्ध हुआ । कर्मवादियों का दूसरा दल उपर्युक्त दल से बिलकुल विरुद्ध दृष्टि रखने वाला था । यह मानता था कि पुनर्जन्म का कारण कर्म अवश्य है। शिष्टसम्मत एवं विहित कर्मों के आचरण से धर्म उत्पन्न होकर स्वर्ग भी देता है । पर वह धर्म भी धर्म की तरह ही सर्वथा हेय है । इसके मतानुसार एक चौथा स्वतन्त्र पुरुषार्थ भी है जो मोक्ष कहलाता है । इसका कथन है कि एकमात्र मोक्ष ही जीवन का लक्ष्य है और मोक्ष के वास्ते कर्ममात्र, चाहे वह पुण्यरूप हो या पापरूप, हेय है । यह नहीं कि कर्म का उच्छेद शक्य न हो । प्रयत्न से वह भी शक्य है | जहाँ कहीं निवर्तक धर्म का उल्लेख आता है वहाँ सर्वत्र इसी मत का सूचक है । इसके मतानुसार जब प्रात्यन्तिक कर्मनिवृत्ति शक्य और इष्ट है तब इसे प्रथम दल की दृष्टि के विरुद्ध ही कर्म की उत्पत्ति का असली कारण बतलाना पड़ा । इसने कहा कि धर्म और धर्म का मूल कारण प्रचलित सामाजिक विधिनिषेध नहीं; किन्तु अज्ञान और राग-द्वेष है। कैसा ही शिष्टसम्मत और विहित सामाजिक आचरण क्यों न हो पर अगर वह अज्ञान एवं रागद्वेष मूलक है तो उससे धर्म की ही उत्पत्ति होती है । इसके मतानुसार पुण्य और पाप का भेद स्थूल दृष्टि वालों के लिए है । तत्त्वतः पुण्य और पाप सब अज्ञान एवं राग-द्वेषमूलक होने से धर्म एवं हेय ही है । यह निवर्तक धर्मवादी दल सामाजिक न होकर व्यक्तिविकासवादी रहा । जब इसने कर्म का उच्छेद और मोक्ष पुरुषार्थ मान लिया तब इस कर्म के उच्छेदक एवं मोक्ष के जनक कारणों पर भी विचार करना पड़ा । इसी विचार के फलस्वरूप इसने जो कर्मनिवर्तक कारण स्थिर किये वही इस दल का निवर्तक धर्म है । प्रवर्तक और निवर्तक धर्म की दिशा बिलकुल परस्पर विरुद्ध है। एक का ध्येय सामाजिक व्यवस्था की रक्षा और सुव्यवस्था का निर्माण है जब दूसरे का ध्येय निजी प्रात्यन्तिक सुख की प्राप्ति है, अतएव मात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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