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________________ कर्मतत्त्व २०७ परलोक की प्राप्ति करानेवाला हो । यही पक्ष चार्वाक परंपरा के नाम से विख्यात हुा । पर साथ ही उस अति पुराने युग में भी ऐसे चिंतक थे जो बतलाते थे कि मृत्यु के बाद जन्मान्तर भी है। इतना ही नहीं बल्कि इस दृश्यमान लोक के अलावा और भी श्रेष्ठ कनिष्ठ लोक हैं। ये पुनर्जन्म और परलोकवादी कहलाते थे और वे ही पुनर्जन्म और परलोक के कारणरूप से कर्मतत्त्व को स्वीकार करते थे । इनकी दृष्टि यह रही कि अगर कर्म न हो तो जन्म जन्मान्तर एवं इहलोकपरलोक का संबन्ध घट ही नहीं सकता। अतएव पुनर्जन्म की मान्यता के आधार पर कर्मतत्त्व का स्वीकार आवश्यक है। ये ही कर्मवादी अपने को परलोकवादी तथा आस्तिक कहते थे । कर्मवादियों के मुख्य दो दल रहे । एक तो यह प्रतिपादित करता था कि कर्म का फल जन्मान्तर और परलोक अवश्य है, पर श्रेष्ठ जन्म तथा श्रेष्ठ परलोक के वास्ते कर्म भी श्रेष्ठ ही चाहिए । यह दल परलोकवादी होने से तथा श्रेष्ठलोक, जो स्वर्ग कहलाता है, उसके साधनरूप से धर्म का प्रतिपादन करनेवाला होने से, धर्म-अर्थ-काम ऐसे तीन ही पुरुषार्थों को मानता था, उसकी दृष्टि में मोक्ष का अलग पुरुषार्थ रूप से स्थान न था । जहाँ कहीं प्रवर्तकधर्म का उल्लेख आता १ मेरा ऐसा अभिप्राय है कि इस देश में किसी भी बाहरी स्थान से प्रवर्तक धर्म या याज्ञिक मार्ग आया और वह ज्यों-ज्यों फैलता गया त्यों-त्यों इस देश में उस प्रवर्तक धर्म के आने के पहले से ही विद्यमान निवर्तक धर्म अधिकाधिक बल पकड़ता गया। याज्ञिक प्रवर्तक धर्म की दूसरी शाखा ईरान में जरथोस्थियनधर्मरूप से विकसित हुई। और भारत में आनेवाली याज्ञिक प्रवर्तक धर्म की शाखा का निवर्तक धर्मवादियों के साथ प्रतिद्वन्द्वीभाव शुरू हुआ। यहाँ के पुराने निवतक धर्मवादी आत्मा, कर्म, मोक्ष, ध्यान, योग, तपस्या आदि विविधि मार्ग यह सब मानते थे। वे न तो जन्मसिद्ध चातुर्वर्ण्य मानते थे और न चातुराश्रम्य की नियत व्यवस्था। उनके मतानुसार किसी भी धर्मकार्य में पति के लिए पत्नी का सहचार अनिवार्य न था प्रत्युत त्याग में एक दूसरे का संबन्ध विच्छेद हो जाता था । जब कि प्रवर्तक धर्म में इससे सब कुछ उल्टा था । महाभारत आदि प्राचीन ग्रन्थों में गार्हस्थ्य और त्यागाश्रम की प्रधानतावाले जो संवाद पाये जाते हैं वे उक्त दोनों धर्मों के विरोधसचक है। प्रत्येक निवृत्ति धर्मवाले के दर्शन के सूत्रग्रन्थों में मोक्ष को ही पुरुषार्थ लिखा है जब कि याज्ञिक मार्ग के सब विधान स्वर्गलक्षी बतलाए हैं। आगे जाकर अनेक अंशों में उन दोनों धर्मों का समन्वय भी हो गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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