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कर्मतत्त्व
२०६ आत्मगामी है । निवर्तक धर्म हो श्रमण, परिव्राजक, तपस्वी और योगमार्ग आदि नामों से प्रसिद्ध है । कर्मप्रवृत्ति अज्ञान एवं राग-द्वेष जनित होने से उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति का उपाय अज्ञानविरोधी सम्यग् ज्ञान और राग-द्वेषविरोधी रागद्वेषनाशरूप संयम ही स्थिर हुअा। बाकी के तप, ध्यान, भक्ति आदि सभी उपाय उक्त ज्ञान और संयम के ही साधनरूप से माने गए।
निवर्तक धर्मवादियों में अनेक पक्ष प्रचलित थे। यह पक्षभेद कुछ तो वादों की स्वभाव-मूलक उग्रता-मृदुता का आभारी था और कुछ अंशों में तत्त्वज्ञान की जुदी-जुदी प्रक्रिया पर भी अवलंबित था। ऐसे मूल में तीन पक्ष रहे जान पड़ते हैं। एक परमाणु वादी, दूसरा प्रधानवादी और तीसरा परमाणुवादी होकर भी प्रधान की छाया वाला था। इसमें से पहला परमाणुवादी मोक्ष समर्थक होने पर भी प्रवर्तकधर्म का उतना विरोधी न था जितने कि पिछले दो। यही पक्ष आगे जाकर न्याय-वैशेषिक दर्शनरूप से प्रसिद्ध हुआ। दूसरा पक्ष प्रधानवादी था और वह आत्यन्तिक कर्मनिवृत्ति का समर्थक होने से प्रवर्तकधर्म अर्थात् श्रौत-स्मार्तकर्म को भी हेय बतलाता था। यही पक्ष सांख्य-योग नाम से प्रसिद्ध है और इसी के तत्त्वज्ञान की भूमिका के ऊपर तथा इसी के निवृत्तिवाद की छाया में आगे जाकर वेदान्तदर्शन और संन्यासमार्ग की प्रतिष्ठा हुई। तीसरा पक्ष प्रधानच्छायापन्न अर्थात् परिणामी परमाणुवादी का रहा जो दूसरे पक्ष की तरह ही प्रवर्तकधर्मका आत्यन्तिक विरोधी था । यही पक्ष जैन एवं निर्ग्रन्थ दर्शन के नाम से प्रसिद्ध है । बौद्धदर्शन प्रवर्तक धर्म का आत्यन्तिक विरोधी है पर वह दूसरे
और तीसरे पक्ष के मिश्रण का एक उत्तरवर्ती स्वतन्त्र विकास है। पर सभी निवर्तकवादियों का सामान्य लक्षण यह है कि किसी न किसी प्रकार कर्मों की जड़ नष्ट करना और ऐसी स्थिति पाना कि जहाँ से फिर जन्मचक्र में पाना न पड़े।
ऐसा मालूम नहीं होता है कि कभी मात्र प्रवर्तकधर्म प्रचलित रहा हो और निवर्तक धर्मवाद का पीछे से प्रादुर्भाव हुआ है। फिर भी प्रारम्भिक समय ऐसा जरूर बीता है जब कि समाज में प्रवतक धर्म की प्रतिष्ठा मुख्य थी और निवर्तक धर्म व्यक्तियों तक ही सीमित होने के कारण प्रवर्तक धर्मवादियों की तरफ से न केवल उपेक्षित ही था बल्कि उससे विरोध की चोटें भी सहता रहा। पर निवर्तक धर्मवादियों की जुदी-जुदी परम्पराओं ने ज्ञान, ध्यान, तप, योग, भक्ति आदि
आभ्यन्तर तत्त्वों का क्रमशः इतना अधिक विकास किया कि फिर तो प्रवर्तकधर्म के होते हुए भी सारे समाज पर एक तरह से निवर्तकधर्म की ही प्रतिष्ठा की मुहर लग गई। और जहाँ देखो वहाँ निवृत्ति की चर्चा होने लगी. और साहित्य भी निवृत्ति के विचारों से ही निर्मित एवं प्रचारित होने लगा।
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