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________________ आवश्यक क्रिया १८७ अपेक्षा उन व्रतों के गुणों की भावना करना तथा उन व्रतों को धारण करनेवाले उच्च श्रावकों को धन्यवाद देकर गुणानुराग पुष्ट करना ही युक्ति-संगत है। अब प्रश्न यह है कि जब ऐसी स्थिति है, तब व्रती-अवती, छोटे-बड़े-सभी श्रावकों में एक ही 'वंदित्तु' सूत्र के द्वारा समान रूप से अतिचार का संशोधन करने की जो प्रथा प्रचलित है, वह कैसे चल पड़ी है ? इसका खुलासा यह जान पड़ता है कि प्रथम तो सभी को 'श्रावश्यक' सूत्र पूर्णतया याद नहीं होता। और अगर याद भी हो, तब भी साधारण अधिकारियों के लिए अकेले की अपेक्षा समुदाय में ही मिलकर 'आवश्यक' करना लाभदायक माना गया है। तीसरे जब कोई सबसे उच्च श्रावक अपने लिए सर्वथा उपयुक्त सम्पूर्ण 'वंदित्तु' सूत्र पढ़ता है, तब प्राथमिक और माध्यमिक सभी अधिकारियों के लिए उपयुक्त वह-वह सूत्रांश भी उसमें आ ही जाता है। इन कारणों से ऐसी समुदायिक प्रथा पड़ी है कि एक व्यक्ति सम्पूर्ण 'वंदितु' सूत्र पढ़ता है और शेष श्रावक उच्च अधिकारी श्रावक का अनुकरण करके सब व्रतों के संबन्ध में अतिचार का संशोधन करने लग जाते हैं। इस समुदायिक प्रथा के रूढ़ हो जाने के कारण जब कोई प्राथमिक या माध्यमिक श्रावक अकेला प्रतिक्रमण करता है, तब भी वह 'वंदित्तु' सूत्र को सम्पूर्ण ही पढ़ता है और ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के अतिचार का भी संशोधन करता है। __इस प्रथा के रूढ़ जो जाने का एक कारण यह और भी मालूम पड़ता है कि सर्वसाधारण में विवेक की यथेष्ट मात्रा नहीं होती। इसलिए 'वंदित्तु' सूत्र में से अपने-अपने लिए उपयुक्त सूत्रांशों को चुनकर बोलना और शेष सूत्रांशों को छोड़ देना, यह काम सर्वसाधारण के लिए जैसा कठनि है, वैसा ही विषमता तथा गोलमाल पैदा करनेवाला भी है। इस कारण यह नियम ' रखा गया है कि जब सभा को या किसी एक व्यक्ति को 'पच्चक्खाण' कराया जाता है, तब ऐसा सूत्र पढ़ा जाता है कि जिसमें अनेक 'पच्चक्खाणों' का समावेश हो जाता है, जिससे सभी अधिकारी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार 'पच्चक्खाण' कर लेते हैं। ___ इस दृष्टि से यह कहना पड़ता है कि 'वंदित्तु' सूत्र अखण्डित रूप से पढ़ना न्याय व शास्त्र-संगत है। रही अतिचार-संशोधन में विवेक करने की बात, सो उसको विवेकी अधिकारी खुशी से कर सकता है । इसमें प्रथा बाधक नहीं है । १-अखण्डं सूत्रं पठनीयमिति न्यायात्-धर्मसंग्रह, पृष्ठ २२३ । . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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