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________________ *දී जैन धर्म और दर्शन पैदा होता है । वह यह है कि श्रावक अनेक प्रकार के होते हैं। कोई केवल सम्यक्त्व बाला - व्रती होता है, कोई व्रती होता है । इस प्रकार किसी को अधिक से for are as व्रत होते हैं और सल्लेखना भी । व्रत भी किसी को द्विविधत्रिविध से, किसी को एकविध - त्रिविध से, किसी को एकविध - द्विविध से इत्यादि नाना प्रकार का होता है । श्रतएव श्रावक विविध अभिग्रह वाले कहे गए हैं ( श्रावश्यक नियुक्ति गा० १५५८ आदि ) । भिन्न अभिग्रह वाले सभी श्रावक चौथे 'आवश्यक' के सिवाय शेष पाँच 'आवश्यक' जिस रीति से करते हैं और इसके लिए जो-जो सूत्र पढ़ते हैं इस विषय में तो शङ्का को स्थान नहीं है; पर के चौथे 'आवश्यक' को जिस प्रकार से करते हैं और उसके लिए जिस सूत्र को पढ़ते हैं, उसके विषय में शङ्का अवश्य होती है । वह यह कि चौथा 'श्रावश्यक' अतिचार-संशोधन-रूप है । ग्रहण किये हुए व्रत-नियमों में ही अतिचार लगते हैं । ग्रहण किये हुए व्रत नियम सब के समान नहीं होते । अतएव एक ही ' वन्दित्तु' सूत्र के द्वारा सभी श्रावक चाहे व्रती हों या व्रती -- सम्यक्त्व, बारह व्रत तथा संलेखना के अतिचारों का जो संशोधन करते हैं, वह न्याय संगत कैसे कहा जा सकता है ? जिसने जो व्रत ग्रहण किया हो, उसको उसी व्रत के अतिचारों का संशोधन 'मिच्छामि दुक्कडं' आदि द्वारा करना चाहिए । ग्रहण नहीं किए हुए व्रतों के गुणों का विचार करना चाहिए और गुण-भावना द्वारा उन व्रतों के स्वीकार करने के लिए आत्म-सामर्थ्य पैदा करना चाहिए । ग्रहण नहीं किये व्रतों के अतिचार का संशोधन यदि युक्त समझा जाय तो फिर श्रावक लिए पञ्च 'महाव्रत' के प्रतिचारों का संशोधन भी युक्त मानना पड़ेगा । ग्रहण किये हुए या ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के संबन्ध में श्रद्धा विपर्यास हो जाने पर 'मिच्छामि दुक्कड' आदि द्वारा उस का प्रतिक्रमण करना, यह तो सत्र अधिकारियों के लिए समान है । पर यहाँ जो प्रश्न है, वह प्रतिचार-संशोधन रूप प्रतिक्रमण के संबन्ध का ही है अर्थात् ग्रहण नहीं किये हुए व्रत नियमों के अतिचार-संशोधन के उस उस सूत्रांश को पढ़ने की और 'मिच्छामि दुक्कडं' आदि द्वारा प्रतिक्रमण करने की जो रोति प्रचलित है, उसका आधार क्या है ? हुए के इस शङ्का का समाधान इतना ही है कि अतिचार-संशोधन-रूप 'प्रतिक्रमण' तो ग्रहण किये हुए व्रतों का ही करना युक्ति-संगत है और तदनुसार ही सूत्रांश पढ़कर 'मिच्छामि दुक्कड़' श्रादि देना चाहिए । ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के संबन्ध में श्रद्धा-विपर्यास का 'प्रतिक्रमण' भले ही किया जाए, पर विचारसंशोधन के लिए उस उस सूत्रांश को पढ़कर 'मिच्छामि दुक्कडं' आदि देने की * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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