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जैन धर्म और दर्शन . (१०)
सर्वज्ञत्व तत्त्वज्ञान की विचारधाराओं में सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व का भी एक प्रश्न है। यह प्रश्न भारतीय तत्त्वज्ञान जितना ही पुराना है । इस विषय में निर्ग्रन्थपरम्परा की इतिहासकाल से कैसी धारणा रही है इस बात को जानने के लिए हमारे पास तीन साधन हैं । एक तो प्राचीन जैन आगम, दूसरा उत्तरकालीन जैन वाङ्मय और तीसरा बौद्ध ग्रन्थ । उत्तरकालीन वाङ्मय में कभी कोई ऐसा पक्षकार नहीं हुआ जो सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व की सम्भवनीयता मानता न हो और जो महावीर
आदि तीर्थकरों में सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व का उपचरित या मात्र श्रद्धाजनित व्यवहार करता हो । आगमों में भी यही वस्तु स्थापित-सी वणित है । महावीर आदि अरिहंतों को जैन आगम निःशंकतया सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वर्णित करते हैं । और सर्वज्ञत्वसर्वदर्शित्व की शक्यता का स्थापन भी करते हैं। इतना ही नहीं बल्कि जैन श्रागम उत्तरकालीन वाङ्मय की तरह अन्य सम्प्रदाय के नायकों के सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व का विरोध भी करते हैं । उदाहरणार्थ जैन आगमकार महावीर के निजी शिष्य परन्तु उनसे अलग होकर अपनी जमात जमानेवाले जमालि के सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व का परिहास करते है । इसी तरह वे महावीर के समकालीन उनके सहसाधक गोशालक के सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व को भी नहीं मानते;' जब कि जमालि और गोशालक को उनके अनुयायी जिन, अरिहंत और सर्वज्ञ मानते हैं । बौद्ध ग्रन्थों में भी अन्यतीर्थिक प्रधान पुरुषों के वर्णन में उनके नाम के साथ सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्वसूचक विशेषण अक्सर पाए जाते हैं। केवल ज्ञातपुत्र महावीर के नाम के साथ ही नहीं बल्कि पुरणकस्सप, गोशालक आदि अन्य तीर्थकरों के नाम के साथ भी सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व सूचक विशेषण उन ग्रन्थों में देखे जाते हैं।२ इन सब साधनों के आधार से हम विचार करें तो नीचे लिखे परिणाम पर आते हैं
१-जैसे आज हर एक श्रद्धालु अपने मुख्य गद्दीधर को जगद्गुरु, प्राचार्य, आदि रूप से बिना माने-मनवाए संतुष्ट नहीं होता अथवा जैसे आधुनिक शिक्षणक्षेत्र में डॉक्टर आदि पदवियों की प्रतिष्ठा है वैसे ही पुराने समय में हर एक सम्प्रदाय अपने मुखिया को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बिना माने-मनवाए संतुष्ट होता न था।
१. भगवती ६. ३२, ३७६; ६. ३३, १५. । २. अंगुत्तर•Vol. IV.P. 429
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