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सर्वज्ञत्व
२-जहाँ तक सम्भव हो हर एक सम्प्रदायानुयायी अन्य सम्प्रदाय के मुखियों में सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व का निषेध करने की कोशिश करता था।
३–सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व की मान्यता की पुरानी साम्प्रदायिक कसौटी मुख्यतया साम्प्रदायिक श्रद्धा थी। __ उपर्युक्त ऐतिहासिक परिणामों से यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि खुद महावीर के समय में ही महावीर निर्ग्रन्थ-परंपरा में सर्वज्ञ-सर्वदर्शी माने जाते थे । परन्तु प्रश्न तो यह है कि महावीर के पहले सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व के विषय में निर्ग्रन्थपरंपरा की क्या स्थिति, क्या मान्यता रही होगी ? जैन-श्रागमों में ऐसा वर्णन है कि अमुक पापित्यिक निग्रन्थों ने महावीर का शासन तब स्वीकार किया जब उन्हें महावीर की सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता में सन्देह न रहा १ । इससे स्पष्ट है कि महावीर के पहले भी पार्खापत्यिक निर्ग्रन्थ-परंपरा की मनोवृत्ति सर्वज्ञसर्वदर्शी को ही तीर्थंकर मानने की थी, जो उत्तरकालीन निर्ग्रन्थ-परंपरा में भी कभी खण्डित नहीं हुई।
सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व का सम्भव है या नहीं इसकी तकदृष्टि से परीक्षा करने का कोई उद्देश्य यहाँ नहीं है । यहाँ तो केवल इतना ही बतलाना है कि पुराने ऐतिहासिक युग में उस विषय में साम्प्रदायिकों की खासकर निर्ग्रन्थ-परंपरा की मनोवृत्ति कैसी थी १ हजारों वर्षों से चली आनेवाली सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व विषयक श्रद्धा की मनोवृत्ति का अगर किसी ने पूरे बल से सामना किया है तो वह बुद्ध ही हैं।
बुद्ध खुद अपने लिए कभी सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होने का दावा करते न थे। और ऐसा दावा कोई उनके लिये करे तो भी उन्हें वह पसंद न था। अन्य सम्प्रदाय के जो अनुयायी अपने-अपने पुरस्कर्ताओं को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी मानते थे उनकी उस मान्यता का किसी न किसी तार्किक सरणी से बुद्ध खंडन भी करते थे। बुद्ध के द्वारा किये गए इस प्रतिवाद से भी उस समय को सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व विषयक मनोवृत्ति का पता चल जाता है । [ई० १०४७ ]
१. भगवती. ६. ३२. ३७६ २. देखो, पृ० ११४, टि० २। मज्झिम सु० ६३ ।
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