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________________ लेश्या विचार ११३ ___ बुद्ध ने पुरणकस्सप की छः अभिजातियों का वर्णन अानन्द से सुनकर कहा है कि मैं छः अभिजातियों को तो मानता हूँ पर मेरा मन्तव्य दूसरों से जुदा है । ऐसा कह करके उन्होंने कृष्ण और शुक्ल ऐसे दो भेदों में मनुष्यजाति को विभाजित किया है । कृष्ण अर्थात् नीच, दरिद्र, दुभंग और शुक्ल अर्थात् उच्च, सम्पन्न, सुभग । और पीछे कृष्ण प्रकार वाले मनुष्यों को तथा शुक्ल प्रकार वाले मनुष्यों को तीन-तीन विभागों में कर्मानुसार बांटा है। उन्होंने कहा है कि रंग-वर्ण कृष्ण हो या शुक्ल दोनों में अच्छे-बुरे गुण-कर्म वाले पाए जाते हैं। जो बिलकुल क्रूर हैं वे कृष्ण हैं, जो अच्छे कर्म वाले हैं वे शुक्ल हैं और जो अच्छे-बुरे से परे हैं वे अशुक्ल-अकृष्ण हैं । बुद्ध ने अच्छे-बुरे कर्मानुसार छः प्रकार तो मान लिए पर उनकी व्याख्या कुछ पुरानी परंपरा से अलग की है जैसी कि योगशास्त्र में पाई जाती है। जैन-ग्रन्थों में ऊपर वर्णित छः लेश्याओं का वर्णन तो है ही जो कि आजीवक और पुरणकस्सप के मन्तव्यों के साथ विशेष साम्य रखता है पर साथ ही बुद्ध के वर्गीकरण से या योग-शास्त्र के वर्गीकरण से मिलता-जुलता दूसरा वर्गीकरण भी जैन-ग्रन्थों में आता है।' ___ उपर्युक्त चर्चा के ऊपर से हम निश्चयपूर्वक इस नतीजे पर नहीं आ सकते कि लेश्याओं का मंतव्य निर्ग्रन्थ-परंपरा में बहुत पुराना होगा। पर केवल जैनग्रन्थों के आधार पर विचार करें और उनमें आनेवाली द्रव्य तथा भाव लेश्या की अनेक विधि प्ररूपणाओं को देखें तो हमें यह मानने के लिए बाधित होना पड़ता है कि भले ही एक या दूसरे कारण से निर्ग्रन्थ-सम्मत लेश्याओं का वर्गीकरण बौद्ध-ग्रन्थों में आया न हो पर निम्रन्थ-परंपरा आजीवक और पुरणकस्सप की तरह अपने ढंग से गुण कर्मानुसार छःप्रकार का वर्गीकरण मानती थी। यह सम्भव है कि निर्ग्रन्थ-परम्परा की पुरानी लेश्या विषयक मान्यता का अगले निर्ग्रन्थों ने विशेष विकास व स्पष्टीकरण किया हो और मूल में गुण-कर्म रूप लेश्या जो भाव लेश्या कही जाती है उसका संबन्ध द्रव्यलेश्या के साथ पीछे से जोड़ा गया हो; जैसा कि भाव-कर्म का संबन्ध द्रव्यकर्म के साथ जोड़ा जाता है। और यह भी सम्भव है कि श्राजीवक आदि अन्य पुरानी श्रमण-परंपराओं की छः अभिजाति विषयक मान्यता को महावीर ने या अन्य निर्ग्रन्थों ने अपना कर लेश्यारूप से प्रतिपादित किया हो और उसका कुछ परिवर्तन और उसका कुछ शाब्दिक परिवर्तन एवं अर्थ विकास भी किया हो। १. भगवती २६. १. । योगशास्त्र ४.७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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