SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ जैन धर्म और दर्शन हो नहीं सकता था । तब जन्मसिद्ध चार वर्णों की मान्यता के विरुद्ध गुणकर्मसिद्ध चार वर्ण की मान्यता का उपदेश व प्रचार श्रमण वर्ग ने बड़े जोरों से किया, यह बात इतिहास - प्रसिद्ध है । बुद्ध और महावीर दोनों कहते हैं कि जन्म से न कोई ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न वैश्य है, न शूद्र है । ब्राह्मणादि चारों कर्म से ही माने जाने चाहिए इत्यादि १ | श्रमण-धर्म के पुरस्कर्ताओं ने ब्राह्मण-परंपरा प्रचलित चतुर्विध वर्ण-विभाग को गुण-कर्म के आधार पर स्थापित तो किया पर वे इतने मात्र से संतुष्ट न हुए। अच्छे-बुरे गुण-कर्म की भी अनेक कक्षाएँ होती हैं । इसलिए तदनुसार भी मनुष्य जाति का वर्गीकरण करना आवश्यक हो जाता है । श्रमणपरंपरा के नायकों ने कभी ऐसा वर्गीकरण किया भी है। पहले किसने किया सो तो मालूम नहीं पड़ता पर बौद्ध ग्रन्थों में दो नामों के साथ ऐसे वर्गीकरण की चर्चा है । 'दीघनिकाय' में श्राजीवक मंखलि गोशालक के नाम के साथ ऐसे वर्गीकरण को छः अभिजाति रूप से निर्दिष्ट किया है, जब कि अंगुत्तर निकाय में पुरणकस्सप के मन्तव्य रूप से ऐसे वर्गीकरण का छः श्रभिजाति रूप से कथन है । ये छः अभिजातियां अथवा मनुष्यजाति के कर्मानुसार कक्षाएँ इस प्रकार हैं-कृष्ण, नील, लोहित रक्त, हरिद्र- पीत, शुक्ल, परम शुक्ल । इन छः प्रकारों में सारी मनुष्यजाति का अच्छे-बुरे कर्म की तीव्रता - मन्दता के अनुसार समावेश कर दिया है । जीवक परंपरा और पुरणकस्सप की परंपरा के नाम से उपर्युक्त छः श्रभिजातियों का निर्देश तो बौद्ध ग्रन्थ में आता है पर उस विषयक निर्ग्रन्थ-परंपरा संबन्धी मन्तव्य का कोई निर्देश बौद्ध ग्रन्थ में नहीं है जब कि पुराने से पुराने जैन ग्रन्थों में निर्ग्रन्थ-परंपरा का मन्तव्य सुरक्षित है । निर्ग्रन्थ-परंपरा छः अभिजातियों को लेश्या शब्द से व्यवहृत करती आई है । वह कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल ऐसी छः लेश्यात्रों को मान कर उनमें केवल मनुष्यजाति का ही नहीं बल्कि समग्र प्राणी जाति का गुण - कर्मानुसार समावेश करती है । लेश्या का अर्थ है विचार, अध्यवसाय व परिणाम । क्रूर और क्रूरतम विचार कृष्ण लेश्या है और शुभ और शुभतर विचार शुक्ल लेश्या हैं । बीच की लेश्याएँ विचारगत शुभता और शुभता का विविध मिश्रण मात्र है । १. उत्तराध्ययन २५. ३३ । धम्मपद २६ ११ । सुत्तनिपात ७. २१ २. अंगुत्तर निकाय vol. IlI p.383 ३. भगवती १. २. २३ । उत्तराध्ययन ० ३४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy