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________________ १०० जैन धर्म और दर्शन अन्तर है । अन्तर यह है कि निर्ग्रन्थ-परंपरा में अपरिग्रह पंचम व्रत है जब कि बौद्ध परंपरा में मद्यादि का त्याग पाँचवाँ शील है । यहाँ एक प्रश्न यह भी होता है कि क्या खुद महावीर ने ब्रह्मचर्य रूप से नए व्रत की सृष्टि की या अन्य किसी परंपरा में प्रचलित उस व्रत को अपनी निर्ग्रन्थपरंपरा में स्वतंत्र स्थान दिया ? सांख्य-योग-परंपरा के पुराने से पुराने स्तरों में तथा स्मृति आदि ग्रन्थों में हम अहिंसा आदि पांच-यमों का ही वर्णन पाते हैं । इसलिए निर्णयपूर्वक तो कहा नहीं जा सकता कि पहले किसने पाँच महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को स्थान दिया ? १ यद्यपि बौद्ध ग्रन्थों में बार-बार चतुर्याम का निर्देश आता है पर मूल पिटकों में तथा उनकी अट्ठकथाओं में चतुर्याम का जो अर्थ किया गया है वह गलत तथा स्पष्ट है । ऐसा क्यों हुआ होगा ? यह प्रश्न श्राए बिना नहीं रहता । निर्ग्रन्थपरंपरा जैसी अपनी पड़ोसी समकालीन और अति प्रसिद्ध परंपरा के चार यमों के बारे में बौद्ध ग्रन्थकार इतने अनजान हों या अस्पष्ट हों यह देखकर शुरू-शुरू में आश्चर्य होता है पर हम जब साम्प्रदायिक स्थिति पर विचार करते हैं तब वह अचरज गायब हो जाता है। हर एक सम्प्रदाय ने दूसरे के प्रति पूरा न्याय नहीं किया है । यह भी सम्भव है कि मूल में बुद्ध तथा उनके समकालीन शिष्य चतुर्याम का पूरा और सच्चा अर्थ जानते हों। वह अर्थ सर्वत्र प्रसिद्ध भी था इसलिए उन्होंने उसको बतलाने की आवश्यकता समझी न हो पर पिटकों की ज्यों-ज्यों संकलना होती गई त्यों-त्यों चतुर्याम के अर्थ स्पष्ट करने की आवश्यकता मालूम हुई । किसी बौद्ध भिक्षु ने कल्पना से उसके अर्थ की पूर्ति की, वही आगे ज्यों की त्यों पिटकों में चली आई और किसी ने यह नहीं सोचा कि चतुर्याम का यह निर्ग्रन्थ-परंपरा को सम्मत है या नहीं ? बौद्धों के बारे में भी ऐसा विपर्यास जैनों के द्वारा हुआ कहीं-कहीं देखा जाता है । किसी सम्प्रदाय के पूर्ण सच्चा स्वरूप तो उसके ग्रन्थों और उसकी परंपरा से जाना जा सकता है। ( ६ ) उपोसथ-पौषध इस समय जैन परंपरा में पौषध-व्रत का आचरण प्रचलित है। इसका प्राचीन इतिहास जानने के पहले हमें इसका वर्तमान स्वरूप संक्षेप में जान लेना चाहिए । पौष गृहस्थों का व्रत है । उसे स्त्री और पुरुष दोनों ग्रहण करते हैं । जो This প6 दीघ०सु० २ । दीघ० सुमंगला पृ० १६७ २. सूत्रकृतांग १ २ २.२४-२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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