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________________ चातुर्याम ६६ प्रयत्न किया । महावीर ने ब्रह्मचर्यव्रत की अपरिग्रह से पृथक् स्थापना अपने तीस वर्ष के लम्बे उपदेश काल में कब की यह तो कहा नहीं जा सकता पर उन्होंने यह स्थापना ऐसी बलपूर्वक की कि जिसके कारण अगली सारी निर्ग्रन्थ-परंपरा पंच महाव्रत की ही प्रतिष्ठा करने लगी, और जो इने-गिने पार्श्वपत्यिक निर्ग्रन्थ महावीर के पंच महाव्रत- शासन से अलग रहे उनका आगे कोई अस्तित्व ही न रहा। अगर बौद्ध पिटकों में और जैन आगमों में चार महाव्रत का निर्देश व वर्णन न आता तो आज यह पता भी न चलता कि पावपित्यिक निर्ग्रन्थ-परंपरा कभी चार महाव्रत वाली भी थी । ऊपर की चर्चा से यह तो अपने आप विदित हो जाता है कि पार्श्वपत्यिक निर्ग्रन्थ-परंपरा में दीक्षा लेनेवाले ज्ञातपुत्र महावीर ने खुद भी शुरू में चार ही . महाव्रत धारण किये थे, पर साम्प्रदायिक स्थिति देखकर उन्होंने उस विषय में कभी न कभी सुधार किया । इस सुधार के विरुद्ध पुरानी निर्ग्रन्थ-परंपरा में कैसी चर्चा या तर्क-वितर्क होते थे इसका आभास हमें उत्तराध्ययन के केशि-गौतम संवाद से मिल जाता है, जिसमें कहा गया है कि कुछ पाश्र्वापत्यिक निर्ग्रन्थों में ऐसा वितर्क होने लगा कि जब पार्श्वनाथ और महावीर का ध्येय एक मात्र मोक्ष ही है तब दोनों के महाव्रत विषयक उपदेशों में अन्तर क्यों ?" इस उधेड़-बुन को केश ने गौतम के सामने रखा और गौतम ने इसका खुलासा किया । केशी प्रसन्न हुए और महावीर के शासन को उन्होंने मान लिया । इतनी चर्चा से हम निम्नलिखित नतीजे पर सरलता से आ सकते हैं १- महावीर के पहले, कम से कम पार्श्वनाथ से लेकर निर्मन्थ-परंपरा में चार महाव्रतों की ही प्रथा थी, जिसको भ० महावीर ने कभी न कभी बदला और पाँच महाव्रत रूप में विकसित किया । वही विकसित रूप आज तक के सभी जैन फिरकों में निर्विवादरूप से मान्य है और चार महाव्रत की पुरानी प्रथा केवल ग्रन्थों में ही सुरक्षित है । २ – खुद बुद्ध और उनके समकालीन या उत्तरकालीन सभी बौद्ध भिक्षु निर्ग्रन्थ-परंपरा को एक मात्र चतुर्महाव्रतयुक्त ही समझते थे और महावीर के पंचमहाव्रतसंबन्धी आंतरिक सुधार से वे परिचित न थे । जो एक बार बुद्ध ने कहा और जो सामान्य जनता में प्रसिद्धि थी उसी को वे अपनी रचनात्रों में दोहराते गए । बुद्ध ने अपने संघ के लिए पाँच शील या व्रत मुख्य बतलाए हैं, जो संख्या की दृष्टि से तो निर्ग्रन्थ-परंपरा के यमों के साथ मिलते हैं पर दोनों में थोड़ा १. उत्तरा० २३. ११-१३, २३-२७, इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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