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________________ ६४ जैन धर्म और दर्शन द्वारा आध्यात्मिक सुख प्राप्त हुआ और उसी तत्व पर अपना नया संघ स्थापित किया। नए सघ को स्थापित करनेवाले के लिए यह अनिवार्य रूप से जरूरी हो जाता है कि वह अपने आचार-विचार संबन्धी नए झुकाव को अधिक से अधिक लोकग्राह्य बनाने के लिए प्रयत्न करे और पूर्वकालीन तथा समकालीन अन्य सम्प्रदायों के मन्तव्यों की उग्र आलोचना करे । ऐसा किए बिना कोई अपने नए संघ में अनुयायियों को न तो एकत्र कर सकता है और न एकत्र हुए अनुयायियों को स्थिर रख सकता है । बुद्ध के नए संघ की प्रतिस्पर्धी अनेक परंपराएँ मौजूद थीं जिनमें निर्ग्रन्थ-परंपरा का प्राधान्य जैसा-तैसा न था । सामान्य जनता स्थूलदर्शी होने के कारण बाह्य उग्र तप और देहदमन से सरलता से तपस्वियों की ओर आकृष्ट होती है, यह अनुभव सनातन है । एक तो, पार्खापत्यिक निर्ग्रन्थ-परंपरा के अनुयायियों को तपस्या-संस्कार जन्मसिद्ध था और दूसरे, महावीर के तथा उनके निर्ग्रन्थ-संघ के उग्र तपश्चरण के द्वारा साधारण जनता अनायास ही निर्ग्रन्थों के प्रति झुकनी ही थी और तपोनुष्ठान के प्रति बुद्ध का शिथिल रूख देखकर उनके सामने प्रश्न कर बैठती थी कि आप तप को क्यों नहीं मानते १ जब कि सब श्रमण तप पर भार देते हैं ? तब बुद्ध को अपने पक्ष की सफाई भी करनी थी और साधारण जनता तथा अधिकारी एवं राजा-महाराजाओं को अपने मंतव्यों की ओर खींचना भी था। इसलिए उनके लिए यह अनिवार्य हो जाता था कि वह तप की उग्र समालोचना करें। उन्होंने किया भी ऐसा ही। वे तप की समालोचना में सफल तभी हो सकते थे जब वे यह बतलाएँ कि तप केवल कष्ट मात्र है । उस समय अनेक तपस्वी-मार्ग ऐसे भी थे जो केवल बाह्य विविध क्लेशों में ही तप की इतिश्री समझते थे। उन बाह्य तपोमार्गों की निःसारता का जहाँ तक संबन्ध है वहाँ तक तो बुद्ध का तपस्या का खंडन यथार्थ है, पर जब आध्यात्मिक शुद्धि के साथ संबन्ध रखनेवाली तपस्याओं के प्रतिवाद का सवाल आता है तब वह प्रतिवाद न्यायपूत नहीं मालूम होता । फिर भी बुद्ध ने निर्ग्रन्थ-तपस्याओं का खुल्लमखुल्ला अनेक बार विरोध किया है तो इसका अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि बुद्ध ने निर्ग्रन्थ-परम्परा के दृष्टिकोण को पूर्णतया लक्ष्य में न लेकर केवल उनके बाह्य तप की ओर ध्यान दिया और दूसरी परंपराओं के खंडन के साथ निग्रन्थपरम्परा के तप को भी घसीटा । निर्ग्रन्थ-परम्परा का तात्त्विक दृष्टिकोण कुछ भी • क्यों न रहा हो पर मनुष्य स्वभाव को देखते हुए तथा जैन ग्रन्थों में आनेवाले १ अंगुत्तर Vol. I. P. 220 २ उत्तरा० अ० १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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