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________________ कतिपय वर्णनों के आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि सभी निर्ग्रन्थ-तपस्वी ऐसे नहीं थे जो अपने तप या देहदमन को केवल आध्यात्मिक शुद्धि में ही चरितार्थ करते हों। ऐसी स्थिति में यदि बुद्ध ने तथा उनके शिष्यों ने निम्रन्थ-तपस्या का प्रतिवाद किया तो वह अंशतः सत्य भी कहा जा सकता है। २-दूसरे प्रश्न का जवाब हमें जैन आगमों से ही मिल जाता है। बुद्ध की तरह महावीर भी केवल देहदमन को जीवन का लक्ष्य समझते न थे। क्योंकि ऐसे अनेक-विध घोर देहदमन करनेवालों को भ० महावीर ने तापस या मिथ्या तप करनेवाला कहा है । तपस्या के विषय में भी पार्श्वनाथ की दृष्टि मात्र देहदमन या कायक्लेश प्रधान न होकर आध्यात्मिक शुद्धिलक्षी थी। पर इसमें तो संदेह ही नहीं है कि निग्रन्थ-परम्परा भी काल के प्रवाह में पड़कर और मानव-स्वभाव की निर्बलता के अधीन होकर अाज की महावीर की परंपरा की तरह मुख्यतया देहदमन की ओर ही झुक गई थी और आध्यात्मिक लक्ष्य एक अोर रह गया था। भ० महावीर ने किया सो तो इतना ही है कि उस परंपरागत स्थूल तप का संबंध आध्यात्मिक शुद्धि के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया और कह दिया कि सब प्रकार के कायक्लेश, उपवास आदि शरीरेन्द्रियदमन तप हैं पर वे बाह्य तप हैं, अांतरिक तप नहीं । आन्तरिक व आध्यात्मिक तप तो अन्य ही हैं, जो आत्मशुद्धि से अनिवार्य संबन्ध रखते हैं और ध्यान-ज्ञान आदि रूप हैं । महावीर ने पापि त्यिक निग्रन्थ-परंपरा में चले आनेवाले बाह्य तप को स्वीकार तो किया पर उसे ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया बल्कि कुछ अंश में अपने जीवन के द्वारा उसमें उग्रता ला करके भी उस देहदमन का. संबन्ध श्राभ्यन्तर तप के साथ जोड़ा और स्पष्ट रूप से कह दिया कि तप को पूर्णता तो आध्यात्मिक शुद्धि की प्राप्ति से ही हो सकती है । खुद आचरण से अपने कथन को सिद्ध करके जहाँ एक ओर महावीर ने निर्ग्रन्थ-परंपरा के पूर्व प्रचलित शुष्क देहदमन में सुधार किया वहाँ दूसरी ओर अन्य श्रमण-परंपरात्रों में प्रचलित विविध देहदमनों को भी अपूर्ण तप अोर मिथ्या तप बतलाया । इसलिए यह कहा जा सकता है कि तपोमार्ग में महावीर की देन खास है और वह यह कि केवलं शरीर और इन्द्रियदमन में समा जानेवाले तप शब्द के अर्थ को आध्यात्मिक शुद्धि में उपयोगी ऐसे सभी उपायों तक विस्तृत किया। यही कारण है कि जैन आगमों में पद-पद पर आभ्यन्तर और बाह्य दोनों प्रकार के तपों का साथ-साथ निर्देश आता है। १. भगवती ३.१ । ११.६ । २ उत्तरा० ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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