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________________ तप भले ही थोड़े समय के लिए, आचरण किया था इसमें कोई संदेह ही नहीं है। और वह तपस्या पार्श्वपत्यिक निम्रन्थ-परंपरा की ही हो सकती है। इससे हम यह मान सकते हैं कि ज्ञातपुत्र महावीर के पहले भी निर्ग्रन्थ-परंपरा का स्वरूप तपस्या-प्रधान ही था। ऊपर की चर्चा से निर्ग्रन्थ-परंपरा की तपस्या संबंधी ऐतिहासिक स्थिति यह फलित होती है कि कम से कम पार्श्वनाथ से लेकर निम्रन्थ-परंपरा तपःप्रधान रही है और उसके तप के झुकाव को महावीर ने और भी वेग दिया है। यहाँ हमारे सामने ऐतिहासिक दृष्टि से दो प्रश्न हैं। एक तो यह कि बुद्ध ने बार-बार निम्रन्थ-तपस्याओं का जो प्रतिवाद या खंडन किया है वह कहाँ तक सही है और उसके खंडन का आधार क्या है ? और दूसरा यह है कि महावीर ने पूर्व प्रचलित निम्रन्थ-तपस्या में कोई विशेषता लाने का प्रयत्न किया है या नहीं और किया है तो क्या ? १-निर्ग्रन्थ-तपस्या के खंडन करने के पीछे बुद्ध की दृष्टि मुख्य यही रही है कि तप यह कायक्लेश है, देहदमन मात्र है । उसके द्वारा दुःखसहन का तो अभ्यास बढ़ता है लेकिन उससे कोई आध्यात्मिक सुख या चित्तशुद्धि प्राप्त नहीं होती । बुद्ध की उस दृष्टि का हम निर्ग्रन्थ दृष्टि के साथ मिलान करें तो कहना होगा कि निर्ग्रन्थ-परंपरा की दृष्टि और बुद्ध की दृष्टि में तात्त्विक अंतर कोई नहीं है। क्योंकि खुद महावीर और उनके उपदेश को माननेवाली सारी निर्ग्रन्थ-परंपरा का वाङ्मय दोनों एक स्वर से यही कहते हैं कि कितना ही देहदमन या कायक्लेश उग्र क्यों न हो पर यदि उसका उपयोग आध्यात्मिक शुद्धि और चित्तक्लेश के निवारण में नहीं होता तो वह देहदमन या कायक्लेश मिथ्या है । इसका मतलब तो यही हुआ कि निर्ग्रन्थ-परंपरा भी देहदमन या कायक्लेश को तभी तक सार्थक मानती है जब तक उसका संबन्ध आध्यात्मिक शुद्धि के साथ हो । तब बुद्ध ने प्रतिवाद क्यों किया ? यह प्रश्न सहज ही होता है। इसका खुलासा बुद्ध के जीवन के झुकाव से तथा उनके उपदेशों से मिलता है। बुद्ध की प्रकृति विशेष परिवर्तनशील और विशेष तर्कशील रही है। उनकी प्रकृति को जब उग्र देहदमन से संतोष नहीं हुआ तब उन्होंने उसे एक अन्त कह कर छोड़ दिया और ध्यानमार्ग, नैतिक जीवन तथा प्रज्ञा पर ही मुख्य भार दिया । उनको इसी के १. देखो पृ० ५८, टि० १२ २. दशवै० ६. ४-४; भग० ३-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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