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जैन धर्म और दर्शन ऊपर के कथन से महावीर के समकालीन और उत्तरकालीन निर्ग्रन्थ-परंपरा की तपस्या-प्रधान वृत्ति में तो कोई संदेह रहता ही नहीं, पर अब विचारना यह है कि महावीर के पहले भी निर्ग्रन्थ-परंपरा तपस्या-प्रधान थी या नहीं ?
इसका उत्तर हमें 'हाँ' में ही मिल जाता है । क्योंकि भ• महावीर ने पार्वापत्यिक निग्रन्थ-परंपरा में ही दीक्षा ली थी । और दीक्षा के प्रारम्भ से ही तप की
ओर झुके थे। इससे पावापत्यिक-परंपरा का तप की ओर कैसा झुकाव था इसका हमें पता चल जाता है। भ० पार्श्वनाथ का जो जीवन जैन ग्रन्थों में वर्णित है उसको देखने से भी हम यही कह सकते हैं कि पार्श्वनाथ को निम्रन्थ-परंपरा तपश्चर्या-प्रधान रही। उस परंपरा में भ० महावीर ने शुद्धि या विकास का तत्त्व अपने जीवन के द्वारा भले ही दाखिल किया हो पर उन्होंने पहले से चली आने वाली पावापत्यिक निग्रेन्थ-परंपरा में तपोमार्ग का नया प्रवेश तो नहीं किया । इसका सबूत हमें दूसरी तरह से भी मिल जाता है। जहाँ बुद्ध ने अपनी पूर्वजीवनी का वर्णन करते हुए अनेकविध तपस्याओं की निःसारता' अपने शिष्यों के सामने कही है वहाँ निर्ग्रन्थ तपस्या का भी निर्देश किया है। बुद्ध ने ज्ञातपुत्र महावीर के पहले ही जन्म लिया था और गृहत्याग करके तपस्वी-मार्ग स्वीकार किया था। उस समय में प्रचलित अन्यान्य पंथों की तरह बुद्ध ने निग्रन्थ पंथ को भी थोड़े समय के लिए स्वीकार किया था और अपने समय में प्रचलित निग्रन्थ-तपस्या का आचरण भी किया था। इसीलिए जब बुद्ध अपनी पूर्वाचरित तपस्याओं का वर्णन करते हैं, तब उसमें हूबहू निग्रन्थ-तपस्याओं का स्वरूप भी अाता है जो अभी जैन ग्रन्थों और जैन-परंपरा के सिवाय अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता । महावीर के पहले जिस निर्ग्रन्थ-तपस्या का बुद्ध ने अनुष्ठान किया वह तपस्या पाश्र्वापत्यिक निर्गन्थ-परंपरा के सिवाय अन्य किसी निर्ग्रन्थ-परंपरा की सम्भव नहीं है । क्योंकि महावीर तो अभी मौजूद ही नहीं थे और बुद्ध के जन्मस्थान कपिलवस्तु से लेकर उनके साधनास्थल राजगृही, गया, काशी आदि में पाश्र्वापत्यिक निर्ग्रन्थ-परंपरा का निर्विवाद अस्तित्व और प्राधान्य था । जहाँ बुद्ध ने सर्व प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन किया वह सारनाथ भी काशी का ही एक भाग है, और वह काशी पार्श्वनाथ की जन्मभूमि तथा तपस्याभूमि रही है। अपनी साधना के समय जो बुद्ध के साथ पाँच दूसरे भिक्षु थे वे बुद्ध को छोड़कर सारनाथइसिपत्तन में ही आकर अपना तप करते थे। आश्चर्य नहीं कि वे पाँच भिक्षु निर्ग्रन्थ-परपरा के ही अनुगामी हों। कुछ भी हो, पर बुद्ध ने निर्ग्रन्थ तपस्या का,
१. देखो पृ० ५८, टि० १२
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