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________________ مروا जैन धर्म और दर्शन उत्सर्ग को आत्मा कहें तो अपवादों को देह कहना चाहिए । दोनों का सम्मिलित उद्देश्य संवादी जीवन जीना है । जो निर्ग्रन्थ मुनि घर-बार का बंधन छोड़कर अनगार रूप से जीवन जीते थे उनको आध्यात्मिक सुखलक्षी जीवन तो जीना ही था जो स्थान, भोजन-पान आदि की मदद के सिवाय जिया नहीं जा सकता। इसलिए अहिंसा-संयम और तप की उत्कट प्रतिज्ञा का औत्सर्गिक मार्ग स्वीकार करने पर भी वे उसमें ऐसे कुछ नियम बना लेते थे जिनसे पशु और मनुष्यों को तो क्या पर पृथ्वी-जल और वनस्पति आदि के जन्तु तक को त्रास न पहुँचे। इसी दृष्टि से अनगार मुनियों को जो स्थान, भोजन-पानादि वस्तुएँ स्थूल जीवन के लिए अनिवार्य रूप से श्रावश्यक हैं उनके ग्रहण एवं उपयोग की व्यवस्था के ऐसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म नियम बने हैं जो दुनिया की और किसी त्याग-परम्परा में देखे नहीं जाते । अनगार मुनियों ने दूसरों के परिहास की या स्तुति की परवाह किए बिना ही अपने लिए अपनी इच्छा से जीवन जीने के नियम बनाए हैं जो प्राचारांग आदि आगमों से लेकर आज तक के नए से नए जैन वाङ्मय में वर्णित हैं और जो वर्तमानकाल की शिथिल और अशिथिल कैसी भी अनगार-संस्था में देखने को मिलते हैं। इन नियमों में यहाँ तक कहा गया है कि अगर दाता अपनी इच्छा से व श्रद्धा-भक्ति से जरूरी चीज अनगार को देता हो तब भी उसका स्वीकार अमुक मर्यादा में रहकर ही करना चाहिए । ऐसी मर्यादाओं को कायम करने में कहीं तो ग्राम वस्तु कैसी होनी चाहिए यह बतलाया गया है और कहीं दाता तथा दानक्षेत्र कैसे होने चाहिए-यह बतलाया गया है । यह भी बतलाया गया है कि ग्राह्य वस्तु मर्यादा में आती हो, दाता व दानक्षेत्र नियमानुकूल हों फिर भी भिक्षा तो अमुक काल में ही करनी चाहिए---भले ही प्राण जाँय पर रात आदि के समय में नहीं । अनगार मुनि ऊख-खजूर आदि को इसलिए ले नहीं सकता कि उसमें खाद्य अंश कम और त्याज्य अंश अधिक होता है । अनगार निर्ग्रन्थ प्राप्त भिक्षा सुगन्धि हो या दुर्गन्ध, रुचिकर हो या अरुचिकर, बिना दुःख-सुख माने खा-पी जाता है । ऐसी ही कठिन मर्यादाओं के बीच अपवाद के तौर पर सामिष आहार-ग्रहण की विधि भी आती है। सामान्य रूप से तो अनगार मुनि सामिष-आहार की भिक्षा लेने को इन्कार ही कर देता था पर बीमारी जैसे संयोग से बाधित होकर लेता भी था तो उसे स्वाद या पुष्टि की दृष्टि से नहीं, केवल निर्मम व अनासक्त दृष्टि से जीवनयात्रा के लिए लेता था। इस भिक्षाविधि का सांगोपांग वर्णन आचारांगादि सूत्रों में है। उसको देखकर कोई भी तटस्थ विचारक यह कह नहीं सकता कि प्राचीनकाल में आपवादिक रूप से ली जानेवाली सामिष-अाहार की भिक्षा किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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