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सामिष-निरामिष आहार
७५ भी तरह से अहिंसा, संयम और तपोमय-श्रौत्सर्गिक मार्ग की बाधक हो सकती है। इसलिए हम तो यही समझते हैं कि जिन्होंने सामिष-आहार सूचक सूत्रों की
और उनके असली अर्थों की रक्षा की है उन्होंने केवल निग्रन्थ-सम्प्रदाय के सच्चे इतिहास की ही रक्षा नहीं की है बल्कि गहरी समझ और निर्भय-वृत्तिका भी परिचय दिया है। अहिंसक भावना का प्रचार व विकास
सामिष-आहारग्रहण या ऐसे अन्य अपवादों की यष्टि की मदद से अहिंसालक्षी औत्सर्गिक जीवन मार्ग पर निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय के इतिहास ने कितनी दूर कूच की है इसका संक्षिप्त चित्र भी हमारे सामने आ जाए तो हमें पुराने सामिष. आहार सूचक सूत्रों से तथा उनके असली अर्थों से किसी भी तरह से हिचकिचाने की आवश्यकता न रहेगी। इसलिए अब हम निग्रन्थ सम्प्रदाय के द्वारा किये गए अहिंसा-प्रधान प्रचार का तथा अहिंसक भावना के विकास का संक्षेप में अवलोकन करेंगे। ___भगवान् पार्श्वनाथ के पहले निग्रन्थ-परम्परा में यदुकुमार नेमिनाथ हो गए हैं उनकी अर्ध-ऐतिहासिक जीवन कथाओं में एक घटना का जो उल्लेख मिलता है । उसको निग्रन्थ-परम्परा की अहिंसक भावना का एक सीमा चिन्ह कहा जा सकता है । लग्न-विवाहादि सामाजिक उत्सव-समारंभों में जीमने-जिमाने और आमोद-प्रमोद करने का रिवाज तो आज भी चालू है पर उस समय ऐसे समारंभों में नानाविध पशुओं का वध करके उनके माँस से जीमन को आकर्षित बनाने की प्रथा आम तौर से रही । खास कर क्षत्रियादि जातियों में तो वह प्रथा
और भी रूढ़ थी । इस प्रथा के अनुसार लग्न के निमित्त किए जाने वाले उत्सव में वध करने के लिए एकत्र किये गए हरिन आदि विविध पशुओं का आर्तनाद सुनकर नेमिकुमार ने ठीक लग्न के मौके पर ही करुणार्द्र होकर अपने ऐसे लग्न का संकल्प ही छोड़ दिया जिसमें ऐसे पशुओं का वध करके माँस का खानाखिलाना प्रतिष्ठित माना जाता रहा । नेमिकुमार के इस करुणामूलक ब्रह्मचर्यवास का उस समय समाज पर ऐसा असर पड़ा और क्रमशः वह असर बढ़ता गया कि धीरे धीरे अनेक जातियों ने सामाजिक समारंभों में माँस खाने-खिलाने को प्रथा को ही तिलाञ्जलि दे दी। संभवतः यही ऐसी पहली घटना है जो सामाजिक व्यवहारों में अहिंसा की नींव पड़ने की सूचक है । नेमिकुमार यादवशिरोमणि देवकीनन्दन कृष्ण के अनुज थे। जान पड़ता है इस कारण से द्वारका और मथुरा के यादवों पर अच्छा असर पड़ा । इतिहास काल में भगवान् पाव
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