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________________ सामिष निरामिषाहार ६१ पूज्यपाद ने कर्मबन्ध के कारणों के विवेचन में लिखा है कि माँसादि का प्रति-पादन करना यह श्रुतावर्णवाद है १४ । निःसन्देह पूज्यपादकृत श्रुतावर्णवाद का आक्षेप उपलब्ध आचारांगादि श्रागमों को लक्ष्य करके ही है; क्योंकि माँसादि के ग्रहण का प्रतिपादन करने वाले जैनेतर श्रुत को तो भगवान् महावीर के पहले से ही निर्ग्रन्थ- परम्परा ने छोड़ ही दिया था । इतने अवलोकन से हम इतना निर्वि वाद कह सकते हैं कि आचाराङ्गादि आगमों के कुछ सूत्रों का माँस-मत्स्यादि बरक अर्थ है - यह मान्यता कोई नई नहीं है और ऐसी मान्यता प्रगट करने पर जैन समाज में क्षोभ पैदा होने की बात भी कोई नई नहीं है । यहाँ प्रसंगवश एक बात पर ध्यान देना भी योग्य है । वह यह कि तत्त्वार्थसूत्र के जिस अंश का व्याख्यान करते समय पूज्यपाद देवनन्दी ने श्वेताम्बरीय आगमों को लक्ष्य करके श्रुतावर्णवाद-दोष बतलाया है उसी श्रंश का व्याख्यान करते समय सूत्रकार उमास्वातिने अपने स्वोपज्ञ भाष्य में पूज्यपाद की तरह श्रुतावर्णवाद-दोष का निरूपण नहीं किया है । इससे स्पष्ट है कि जिन आगमों के अर्थ को लक्ष्य करके पूज्यपाद ने श्रुतावर्णवाद दोष का लाञ्छन लगाया है उन आगमों के उस अर्थ के बारे में उमास्वाति का कोई आक्षेप न था । यदि वे उस माँसादि परक अर्थ से पूज्यपाद की तरह सर्वथा असहमत या विरुद्ध होते तो वे भी श्रुतावर्णवाद का अर्थ पूज्यपाद जैन करते और गमों के विरुद्ध कुछ-न-कुछ जरूर कहते । माँस-मत्स्यादि की खाद्यता और पक्षभेद आज का सारा जैन समाज, जिसमें श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी सभी छोटे-बड़े फिरके श्रा जाते हैं, जैसा नख से शिखा तक माँस-मत्स्य आदि से परहेज करने वाला है और हो सके यहाँ तक माँस-मत्स्य आदि वस्तुओं को खाद्य सिद्ध करके दूसरों से ऐसी चीजों का त्याग कराने में धर्म पालन मानता है और तदर्थ समाज के त्यागी- गृहस्थ सभी यथासम्भव प्रयत्न करते हैं वैसा ही उस समय का जैन समाज भी था और माँस-मत्स्य आदि के त्याग का प्रचार करने में दत्तचित्त था जब कि चूर्णिकार, आचार्य हरिभद्र और प्राचार्य अभयदेव ने आगमगत अमुक वाक्यों का माँस-मत्स्यादि परक अर्थ भी अपनी-अपनी श्रागमिक व्याख्यानों में लिखा । इसी तरह पूज्यपाद देवनन्दी और उमास्वाति के समय का जैन समाज भी ऐसा ही था, उसमें भले ही श्वेताम्बर - दिगम्बर जैसे फिरके मौजूद हों पर माँस-मत्स्य आदि को अखाद्य मान कर चालू जीवन-व्यवहार में से १४. सर्वार्थसिद्धि ६. १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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