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________________ ६२ जैन धर्म और दर्शन उसका सर्वथा त्याग करने के विषय में तो सभी फिरके वाले एक ही भूमिका पर थे । कहना तो यह चाहिए कि श्वोताम्बर - दिगम्बर जैसा फिरकाभेद उत्पन्न होने के पहले ही से माँस - मत्स्यादि वस्तुत्रों को अखाद्य मानकर उनका त्याग करने की पक्की भूमिका जैन समाज की सिद्ध हो चुकी थी । जब ऐसा था तब सहज ही में प्रश्न होता है कि आगमगत श्रमुक सूत्रों का माँस-मत्स्यादि अर्थ करने वाला एक पक्ष और उस अर्थ का विरोध करने वाला दूसरा पक्ष ऐसे परस्पर विरोधी दो पक्ष जैन समाज में क्यों पैदा हुए ? क्योंकि दोनों के वर्तमान जीवन -धोरण में तो कोई खाद्याखाद्य के बारे में अंतर था ही नहीं । यह प्रश्न हमें इतिहास के सदा परिवर्त्तनशील चक्र की गति तथा मानव स्वभाव के विविध पहलुओं को देखने का संकेत करता है । इतिहास का अंगुलिनिर्देश इतिहास पद-पद पर अंगुलि उठा कर हमें कहता रहता है कि तुम भले ही अपने को पूर्वजों के साथ सर्वथा एक रूप बने रहने का दावा करो, या ढोंग करो M पर मैं तुमको या किसी को एक रूप न रहने देता हूँ और न किसी को एक रूप देखता भी हूँ । इतिहास की आदि से मानव जाति का कोई भी दल एक ही प्रकार के देशकाल, संयोगों या वातावरण में न रहा, न रहता है । एक दल एक ही स्थान में रहता हुआ भी कभी कालकृत और अन्य संयोगकृत विविध परिस्थतियों में से गुजरता है, तो कभी एक ही समय में मौजूद ऐसे जुदे- जुदे मानवदल देशकृत तथा अन्य संयोग-कृत विविध परिस्थितियों में से गुजरते देखे जाते हैं । यह स्थिति जैसी आज है वैसी ही पहले भी थी । इस तरह परिवर्तन के अनेक ऐतिहासिक सोपानों में से गुजरता हुआ जैन समाज भी आज तक चला आ रहा है । उसके अनेक आचार-विचार जो आज देखे जाते हैं वे सदा वैसे ही थे ऐसा मानने का कोई आधार जैन वाङ्मय में नहीं है। मामूली फर्क होते रहने पर भी जब तक आचारविचार की समता बहुतायत से रहती है तब तक सामान्य व्यक्ति यही समझता है कि हम और हमारे पूर्वज एक ही आचार-विचार के पालक - पोषक हैं । पर यह फर्क जब एक या दूसरे कारण से बहुत बड़ा हो जाता है तब वह सामान्य मनुष्य के थोड़ा सा ध्यान में आता है, और वह सोचने लग जाता है कि हमारे अमुक श्राचारविचार खुद हमारे पूर्वजों से ही भिन्न हो गए हैं । आचार-विचार का सामान्य अंतर साधारण व्यक्ति के ध्यान पर नहीं आता, पर विशेषज्ञ के ध्यानसे वह ओझल नहीं होता । जैन समाज के आचार-विचार के इतिहास का अध्ययन करते हैं तो ऊपर कही हुई सभी बातें जानने को मिलती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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